अंततः उत्तराखंड बेरोजगार संघ के अध्यक्ष बॉबी पँवार, लूशुन टोडरिया
समेत 13 युवाओं को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, देहरादून की अदालत
ने जमानत पर रिहा करने का आदेश दे दिया. 09 फरवरी को देहरादून में भर्ती घोटालों के
खिलाफ युवाओं के विशाल प्रदर्शन के बाद इन युवाओं को पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की
धारा 307 एवं
अन्य संगीन धाराओं में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया था. बार एसोसिएशन, देहरादून और आंदोलनकारी कई दिनों से इन युवाओं की जमानत के लिए प्रयास कर
रहे थे. इस बीच धारा 307 हटा ली गयी थी. लेकिन इनकी जमानत को टालने के लिए उत्तराखंड
सरकार की ओर से नए-नए पैंतरे आजमाए गए. बीते शनिवार को सुनवाई में पुलिस बिना केस डायरी
के अदालत में पहुँच गयी. अगली सुनवाई में उसने धारा 307 को फिर
से लगाने की मंशा जाहिर की. जिस तरह सरकारी पक्ष अदालत में पेश आ रहा था, उससे लग रहा था कि वे किसी भी हालत में इन युवाओं की रिहाई नहीं होने देना
चाहते.
लेकिन तमाम अड़ंगों के बावजूद 15 फरवरी को इन तेरह युवाओं
को अदालत ने जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया. जमानत के आदेश में यह शर्त है कि ये
युवा उग्र आंदोलन में भाग नहीं लेंगे और बिना पूर्व अनुमति के धरना,प्रदर्शन नहीं करेंगे. इस शर्त से साफ है कि इन युवाओं के शांतिपूर्ण धरना,प्रदर्शन करने के लोकतांत्रिक अधिकार को अदालत ने कायम रखा है.
उत्तराखंड सरकार और उसकी पुलिस किस तरह, इन युवाओं के विरुद्ध षड्यंत्र करती रही, इसकी झलक भी
मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, देहरादून के जमानत आदेश में देखी जा
सकती है. न्यायालय का फैसला देखें तो साफ होता है कि इन युवाओं पर हिंसा का आरोप मढ़
कर भले ही पुलिस ने उन्हें जेल भेजा हो, लेकिन उनकी हिंसा में
संलिप्तता को सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण देहरादून पुलिस के पास नहीं था. देहरादून
के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट लक्ष्मण सिंह ने अपने जमानत आदेश में लिखा- “अभियुक्तगणों
पर आरोप है कि उनके द्वारा उग्रतापूर्ण आंदोलन कर, सरकारी संपत्ति
को क्षति कारित की गयी. इस संबंध में प्रस्तुत आख्या व उपलब्ध प्रपत्रों में सरकारी
संपत्ति का विवरण तथा नुकसान का अनुमान का कोई उल्लेख नहीं है.” माननीय मुख्य न्यायिक
मजिस्ट्रेट, देहरादून की इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि भले ही पुलिस
इन युवाओं पर सरकारी संपत्ति के नुकसान का गंभीर अभियोग लगा रही थी, लेकिन इस अभियोग के संदर्भ में कोई ब्यौरा उसके पास नहीं था.
मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने अपने आदेश में उल्लेख किया
है कि इन युवाओं पर पुलिस की वर्दी फाड़ने का भी अभियोग लगाया गया है. लेकिन कोई फटी
हुई वर्दी कब्जे में नहीं ली गयी.
पुलिस तो इन युवाओं पर धारा 307 पुनः लगाना चाहती थी.
इसके लिए उनका तर्क था कि मेडिकल और एक्स रे की रिपोर्टों से ऐसा प्रतीत होता है कि
पुलिस कर्मियों पर जान लेने की नीयत से हमला किया गया. लेकिन मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, देहरादून ने जो टिप्पणी की है, उससे साफ है कि अदालत
में प्रस्तुत मेडिकल सर्टिफिकेट में पुलिस कर्मियों को लगी चोटें बेहद मामूली प्रकृति
की पायी गयी. अदालत ने यह भी लिखा कि इन तेरह युवाओं के विरुद्ध कोई अतिरिक्त या विशेष
साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया.
इस तरह देखें तो अदालत के सामने न तो सरकारी पक्ष यह बता
पाया कि सरकारी संपत्ति को कितना नुकसान पहुंचा है, न पुलिस की वर्दी
फाड़ने की बात सिद्ध हो पायी, पुलिस वालों को लगी चोटें भी मामूली
प्रकृति की पायी गयी और वर्दी फाड़े जाने का कोई साक्ष्य अदालत में प्रस्तुत नहीं किया
गया.
जब इनमें से किसी अपराध में इन युवाओं को संलिप्तता सिद्ध
करने का कोई प्रमाण, उत्तराखंड सरकार और पुलिस के पास नहीं
था तो यह मुकदमे का कुचक्र सिर्फ इन युवाओं के आंदोलन को तोड़ने और इन्हें सरकार के
विरुद्ध आवाज उठाने के लिए सबक सिखाने की नीयत से रचा गया ?
09 फरवरी से जेल में बंद बॉबी पँवार समेत तेरह युवाओं
का जमानत आदेश को पढ़ कर साफ प्रतीत होता है कि इन युवाओं के विरुद्ध उत्तराखंड सरकार
और देहरादून पुलिस ने बदले की भावना के कारण षड्यंत्र रचा और इन्हें अपराधी सिद्ध करने
की कोशिश, उस षड्यंत्र का हिस्सा थी. लेकिन अदालत में यह षड्यंत्र टिक नहीं पाया.
क्या इस षड्यंत्र के बेपर्दा होने से सरकार कोई सबक लेगी
और भर्ती परीक्षाओं की सीबीआई जांच समेत इनकी सभी वाजिब मांगों पर गौर करेगी या फिर
इन युवाओं को लांछित करने के लिए पुलिस के जरिये फिर कोई नया षड्यंत्र रचेगी ? उत्तरखंड के युवाओं का भविष्य तो सरकार के रुख पर निर्भर करेगी ही, लेकिन युवाओं के विक्षोभ को देखते हुए सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि उसका
भविष्य भी काफी कुछ इन युवाओं के रुख पर ही निर्भर करेगा !
-इन्द्रेश मैखुरी
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