उत्तराखंड में काफी अरसे से
भर्ती परीक्षाओं में धांधली और नियुक्तियों में गड़बड़ी का मसला गर्माया हुआ है. उत्तराखंड
बेरोजगार संघ के बैनर तले प्रदेश के युवा निरंतर भर्ती परीक्षाओं में धांधली के खिलाफ
अभियान चलाये हुए हैं. ऐसा लगता है कि युवाओं के भर्ती घोटालों के विरुद्ध अभियान से
निपटने का रास्ता उत्तराखंड की पुष्कर सिंह
धामी सरकार को सूझ नहीं रहा है. इसलिए बीती 08 फरवरी और 09 फरवरी को उसने आंदोलनरत
युवाओं के बर्बर दमन का रास्ता अपनाया.
बीते वर्ष जब नियुक्तियों में भ्रष्टाचार की बात सामने
आई थी तो विधानसभा अध्यक्ष द्वारा गठित जांच कमेटी की रिपोर्ट के बाद 228 कर्मचारियों
की सेवा समाप्त कर दी गयी थी. विधानसभा में नियुक्त ये तदर्थ कर्मचारी 2016 से 2022
के बीच नियुक्त हुए थे. अपनी बर्खास्तगी के खिलाफ विधानसभा से बर्खास्त ये कर्मचारी
नैनीताल उच्च न्यायालय गए, जहां एकल पीठ ने इनकी सेवा समाप्ति के
आदेश पर रोक लगा दी, लेकिन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विपिन
सांघी की अध्यक्षता वाली दो जजों की खंडपीठ ने 24 नवंबर 2022 को सुनाये गए फैसले में
इनकी सेवा समाप्ति को सही ठहराया.
इस बीच जब प्रदेश के युवा नौकरियों में भ्रष्टाचार का
मसला उठाने के लिए पुलिस दमन और जेल का सामना कर रहे थे, ठीक उसी वक्त कुछ लोग विधानसभा से बर्खास्त कर्मचारियों के पक्ष में अभियान
शुरू कर रहे थे. हैरत यह है कि इसमें सत्ताधारी भाजपा से जुड़ाव रखने वाले नेता हैं
तो विपक्षी कॉंग्रेस वाले भी हैं.
कांग्रेसी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा कर देश की विभिन्न
अदालतों में वाद दाखिल करने वाले भाजपा के पूर्व राज्य सभा सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी विधानसभा से बर्खास्त कर्मचारियों
के पक्ष में उतर आए हैं. 16 फरवरी को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को
लिखे पत्र में डॉ.सुब्रमण्यम स्वामी ने सर्वदलीय बैठक बुला कर विधानसभा
से बर्खास्त कर्मचारियों को बहाल करने की मांग की. 26 फरवरी को स्वामी हरिद्वार आए
तो वहां भी उन्होंने विधानसभा से बर्खास्त कर्मचारियों को बहाल करने की बात उठाई. यह
हैरत की बात है कि जो सुब्रमण्यम स्वामी स्वयं को भ्रष्टाचार
के विरुद्ध लड़ाई के योद्धा के तौर पर प्रस्तुत करने का कोई अवसर नहीं चूकते, वही सुब्रमण्यम स्वामी बैकडोर से नियुक्त इन
कर्मचारियों को नौकरी से हटाये जाने को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करार देते हैं.
स्वामी के दावे के इतर विधानसभा अध्यक्ष द्वारा गठित कोटिया
समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि “2001 से 2022 तक की सभी तदर्थ नियुक्तियों
में संविधान के अनुच्छेद 14 व 16 का उल्लंघन हैं.”
लेकिन सुब्रमण्यम स्वामी अकेले नहीं
हैं, जो विधानसभा से बर्खास्त कर्मचारियों की पैरवी कर रहे हैं. राज्य की मुख्य
विपक्षी पार्टी कॉंग्रेस भी विधानसभा के बर्खास्त कर्मचारियों के पक्ष में लामबंदी
किए हुए है. 11 फरवरी को पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, कॉंग्रेस
प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा, विधायक हरीश धामी, पूर्व मंत्री- मंत्री प्रसाद नैथानी समेत कॉंग्रेस नेताओं का प्रतिनिधिमंडल
इस मामले में विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण से मिला. यह मुलाक़ात ऐसे समय हुई जबकि
प्रदेश में भर्ती परीक्षाओं में धांधली के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले युवाओं का उत्तराखंड
की भाजपा सरकार ने बर्बर दमन किया और 13 युवा जेल में थे !
विधानसभा में बैकडोर नियुक्तियों के संदर्भ में एक नाटक
प्रदेश में और हुआ. विधानसभा में 2001 से 2022 तक कुल 396 कर्मचारी अनियमित तरीके से,बिना सार्वजनिक विज्ञप्ति और भर्ती परीक्षा के नियुक्त हुए. स्वयं विधानसभा
अध्यक्ष द्वारा गठित समिति ने इन सभी नियुक्तियों में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14
और 16 के उल्लंघन की बात अपनी रिपोर्ट में स्वीकार की. लेकिन 2016 से पहले नियुक्त
कर्मचारियों का विनयमितिकरण हो चुका है, इसलिए हटाये 2016 के
बाद के 228 कर्मचारी गए, जो तदर्थ थे. नाटक यह हुआ कि विधानसभा
अध्यक्ष ने महाधिवक्ता से 2016 से पहले नियुक्त कर्मचारियों के संबंध में राय मांगी
और महाधिवक्ता ने यह कहते हुए राय देने से इंकार कर दिया कि मामला न्यायालय में विचाराधीन
है !
सवाल उठ सकता है कि विधानसभा अध्यक्ष द्वारा महाधिवक्ता
से राय मांगने और उनके राय न देने को नाटक क्यूँ कहा जा रहा है ? पहली बात यह कि न्यायालय में विचारधीन मामला विनियमित हो चुके कर्मचारियों
का नहीं है, वह उन 228 तदर्थ कर्मचारियों का जिन्हें सेवा से
बर्खास्त किया जा चुका है.
विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण की मंशा यदि वास्तव
में अनियमित तरीके से विधानसभा में नियुक्ति पाये और विनियमित हो चुके कर्मचारियों
के मामले में कार्यवाही करने की होती तो विधानसभा से बर्खास्त 228 तदर्थ कर्मचारियों
के मामले में डबल बेंच का फैसला उसके लिए पर्याप्त आधार मुहैया कराता है.
24 नवम्बर 2022 को उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीश- न्यायमूर्ति
विपिन सांघी और न्यायमूर्ति रमेश चंद्र खुल्बे की खंडपीठ के फैसले में उल्लिखित अपने
यानि विधानसभा सचिवालय की ओर से पेश वकीलों की दलीलों को ही विधानसभा अध्यक्ष पढ़ लेती
तो उनको यह राय मांगने की आवश्यकता ही नहीं होती. बैकडोर नियुक्ति के मामले में उच्चतम
न्यायालय के फैसलों में स्पष्ट राय व्यक्त की गयी है. इस मामले में प्रसिद्ध कर्नाटक
राज्य बनाम उमा देवी के मामले में 2006 में संविधान पीठ ने अपने फैसले में लिखा कि
“ वैधानिक नियमों और अनुच्छेद 14 और 16 के उल्लंघन करके की गयी कोई भी नियुक्ति शून्य
समझी जायेगी.” 2007 में उच्चतम न्यायालय ने मध्यप्रदेश सहकारी बैंक बनाम नानूराम यादव
के मामले में लिखा कि “जो पिछले दरवाजे से आते हैं, उन्हें पिछले
दरवाजे से ही बाहर भेज देना चाहिए.”
ऐसे अनेक मामलों में उच्चतम न्यायालय की स्पष्ट राय है, जिनका उल्लेख विधानसभा सचिवालय की याचिका पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय के डबल
बेंच द्वारा दिये गए फैसले में भी है. क्या अध्यक्ष महोदया, महाधिवक्ता
की राय को उच्चतम न्यायालय से ऊपर तरजीह देती होंगी ?
इस पूरे प्रकरण में जो राजनीतिक सहानुभूति नजर आ रही है.
उसकी स्पष्ट वजह है. विधानसभा में 2001 से लेकर 2022 तक सारी नियुक्तियां राजनीतिक
सहमति से होती रही हैं, जिसको दो पूर्व अध्यक्षों- गोविंद सिंह
कुंजवाल और प्रेम चंद्र अग्रवाल द्वारा स्वीकार भी किया गया है. यह भी साफ है कि ये
सभी नियुक्तियां बिना किसी विज्ञापन और बिना किसी भर्ती परीक्षाओं के हुई हैं. दोनों
दलों- भाजपा व कॉंग्रेस के भीतर से इन नियमविरुद्ध नियुक्तियों के पक्ष में आवाज उठने
का कारण यही है कि इन पार्टियों के नजदीकी अथवा सिफारिशी लोग ही इस तरह से बिना विधान
के विधानसभा में नियुक्ति पाते गए.
विधानसभा में हुई अनियमित नियुक्तियों के मामले में जरूरत
यह नहीं है कि 228 बर्खास्त कर्मचारियों को बहाल किया जाये बल्कि न्याय का तकाजा यह
है कि 2016 से पहले नियुक्त कर्मचारियों के साथ भी वही सलूक हो जो 2016 के बाद नियुक्त
हुए कर्मचारियों के साथ हुआ है. जैसा कि उच्चतम न्यायालय के कई फैसलों में भी कहा गया
है कि इन्हें सिर्फ इस आधार पर बच निकलने नहीं दिया जा सकता कि इनकी सेवाएँ नियमित
हो गयी हैं. इसलिए विधानसभा से सभी 396 कर्मचारियों की बर्खास्तगी होनी चाहिए. संवैधानिक
प्रावधानों और विधानसभा में नियुक्ति की नियमावली की धज्जियां उड़ाने वाले पूर्व विधानसभा
अध्यक्षों और वित्त विभाग की वैधानिक आपत्तियों के बावजूद इन नियुक्तयों को संस्तुति
देने वाले मुख्यमंत्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 और अनुसूचित जाति
/ अनुसूचित जाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत मुकदमा दर्ज करके, उन्हें गिरफ्तार किया जाना चाहिए.
वो चाहे रावत
हैं या स्वामी,उत्तराखंड के युवाओं के नौकरी और भविष्य की डाकेजनी
करने वालों की पैरवी करने की अनुमति किसी को नहीं दी जानी चाहिए !
-इन्द्रेश मैखुरी
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