उत्तराखंड में अटल उत्कृष्ट स्कूलों के परीक्षा
परिणाम का मसला कुछ-कुछ कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम जैसा हो
गया. कर्नाटक में विधानसभा चुनाव भाजपा जीती होती तो मोदी जी का चमत्कार, उनकी लहर के रूप में इसका चर्चा होता. लेकिन हार हुई तो सब जगह नड्डा जी
का चेहरा दिखाया जा रहा है.
लगभग ऐसा ही अटल उत्कृष्ट विद्यालयों का मामला भी हो
गया है. परीक्षा परिणाम बेहतर होता तो इसका श्रेय लेने के लिए शिक्षा मंत्री धन
सिंह रावत, मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सामने दिखाई दे रहे
होते, जो इस बात का बखान करते कि प्रदेश के सरकारी स्कूलों
में से कुछ को सीबीएसई बोर्ड के हवाले करके, उनमें अंग्रेजी
में पढ़ाई करवा करके उन्होंने कैसा युगांतकारी काम किया. चैनल से लेकर अखबारों तक, समाचारों में सरकार के मंत्री-मुख्यमंत्री की दूरदृष्टि की सराहना हो
होती.तब कोई नहीं कहता कि एकदम नयी प्रणाली पढ़ाने की सौंपे जाने के बावजूद अटल
उत्कृष्ट विद्यालयों के शिक्षकों का प्रदर्शन उत्कृष्ट कोटी का रहा है या इस बात
की चर्चा होती भी तो समाचार के किसी हाशिये के कोने में.
लेकिन चूंकि परीक्षा परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं
रहे हैं, हाईस्कूल और इंटरमीडियट में परीक्षा परिणाम तकरीबन 50-60 प्रतिशत रहा है,
इसलिए इस कमजोर प्रदर्शन का पूरा ठीकरा शिक्षकों पर फोड़ दिया गया
है. यहाँ तक कि जिन स्कूलों में बच्चों की कंपार्टमेंट आई है, वहाँ गर्मियों की छुट्टियाँ भी रद्द कर दी गयी हैं. साथ ही शिक्षकों के
जवाब-तलब और प्रशासनिक कार्यवाही का इरादा भी शिक्षा विभाग ने जताया है.
ये सब कार्यवाही के इरादे और शिक्षकों के सोशल मीडिया
पर बोलने की रोक का फरमान भी शिक्षा विभाग के महानिदेशक बंशीधर तिवारी की ओर से किया
गया है. श्रेय लेने की दशा में बयानों के गोले दागने वाले मंत्री जी कहीं नज़र नहीं
आ रहे हैं.
लेकिन इस परीक्षा परिणाम की दृष्टि से देखें तो क्या सिर्फ
शिक्षकों को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? अंग्रेजी माध्यम के नाम पर छात्र-छात्राओं के साथ प्रयोग करने वाली सरकार
और उसकी मशीनरी पर क्या कोई ज़िम्मेदारी आयद नहीं होनी चाहिए ?
उत्तराखंड स्कूली शिक्षा विभाग की वैबसाइट के अनुसार “उत्तराखंड में शौक्षिक गुणवत्ता सुनिश्चित किये जाने के लिए
राज्य के 95 विकास खंडों में 02-02 (प्रति विकास खंड 02) कुल 189 राजकीय इंटर कालेजों का अटल उत्कृष्ठ विद्यालयों में समायोजन
किया गया. प्रत्येक अटल विद्यालय CBSE से मान्यता प्राप्त होगा. इनमें अध्यापकों की तैनाती वर्तमान में कार्यरत
अध्यापकों से परीक्षा के माध्यम से की जाएगी. ”
यह जो इन स्कूलों का सरकार द्वारा घोषित उद्देश्य है, गड़बड़ी की शुरुआत तो वहीं से हो गयी. कोई पूछे,
फैसला लेने वालों से कि क्या राज्य में दो श्रेणी के स्कूल हैं/ होंगे ? एक वे जिनमें गुणवत्ता सुनिश्चित होगी और दूसरे ....... ? दूसरा प्रश्न यह है कि यह किसने तय किया कि सीबीएसई की मान्यता और
सीबीएसई का पाठ्यक्रम ही गुणवत्ता का पैमाना है ?
इस देश में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले तो
निरंतर समान शिक्षा प्रणाली की बात करते रहे हैं. दशकों से समान शिक्षा प्रणाली के
पक्ष में यह नारा लगाया जाता रहा है कि “राष्ट्रपति की हो या चपरासी की संतान, सबको शिक्षा एक समान ! ” लेकिन समान शिक्षा प्रणाली तो छोड़िए, यहाँ एक ही राज्य की सरकार ने अपने अधीन विद्यालयों में दो तरह के बोर्ड
चलवा दिये हैं- एक उत्तराखंड बोर्ड के विद्यालय हैं और एक सीबीएसई बोर्ड के
विद्यालय हैं, जिन्हें पूर्व प्रधानमंत्री के नाम के साथ, उत्कृष्ट का भी तमगा, बनने के साथ ही दे दिया गया !
परीक्षा परिणामों में निकृष्ट होने के बाद भी नाम में निहित उत्कृष्टता में कोई
आंच नहीं आएगी !
यह जवाब तो राज्य की भाजपा सरकार, मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री को देना चाहिए कि उनके अधीन आने वाले कुछ
ही विद्यालय उत्कृष्ट क्यूँ हैं ? क्या इतने भर से विद्यालय
उत्कृष्ट हो जाएंगी कि वहाँ सीबीएसई बोर्ड है और अंग्रेजी में पढ़ाई होती है ?
विरोधाभास या विद्रूप देखिये, जिनकी राजनीति का आधारभूत नारा है- हिन्दी, हिन्दू, हिंदुस्तान – उन्होंने जब उत्कृष्ट स्कूल की कल्पना की तो उनके दिमाग में
पहला ख्याल यह आया कि विद्यालय उत्कृष्ट तब होगा, जब वहां
अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई होगी ! यह भीतर व्यापी औपनिवेशिक दासता और उससे जन्में
हीनताबोध से पैदा हुआ विचार है जो मानता है कि अंग्रेजी,
श्रेष्ठता या उत्कृष्टता का पैमाना है.
निश्चित ही अंग्रेजी की इस दौर में महत्ता है. लेकिन
अंग्रेजी भी अन्य भाषाओं की तरह, महज एक भाषा है. भाषा सीखने-
समझने की चीज है. लेकिन इसे उत्कृष्टता का पैमाना बना देंगे तो निश्चित ही वह एक
अच्छे खासे हिस्से में हीनता बोध पैदा करेगी.
भाषा परिवेश का भी मसला है. मातृ भाषा समेत जो भी
भाषा व्यक्ति बोलता है, वह उसे घोट कर न पिलाई जाती है, न रटा कर सिखाई जाती है बल्कि वही भाषा व्यक्ति सरलता से बोल पाता है, जो उसके परिवेश में प्रचलन में होती है.
हिंदी माध्यम
वाले स्कूलों में अंग्रेजी जैसे सिखायी जाती है, वो एक और
बड़ी समस्या है. अंग्रेजी सिखाने में इन स्कूलों में सबसे पहले ग्रामर यानि व्याकरण
रटाने की कोशिश करते हैं और अंग्रेजी के श्रेष्ठ होने के बोध से दबा विद्यार्थी, ग्रामर के जाल में ही उलझ कर रह जाता है. सामान्य बोध से भी समझा जा सकता
है कि दुनिया में जो भाषाएँ आप सहजता, सरलता से बोलते हैं, उनका व्याकरण पहले आप तक नहीं पहुंचा बल्कि आप बरसों-बरस वो भाषाएँ बोलते
रहे और फिर कहीं आपने जाना कि उनका व्याकरण क्या है या कई बार मुमकिन है कि
ठीक-ठीक व्याकरण कभी आपने पढ़ा भी न हो. पर व्याकरण न जानने की वजह से आपकी जानी
गयी भाषाओं में आपके कदम कभी नहीं डगमगाए. लेकिन अंग्रेजी तक ग्रामर के जरिये
विद्यार्थी को पहुंचाने की पढ़ाई, उसे पहले कदम पर उसकी
रफ्तार बांध देती है देती है.
जिन अध्यापकों को अटल उत्कृष्ट में पढ़ाने के लिए चुना
गया, वे सरकारी स्कूलों से ही चुने गए थे. सालों-साल वे हिंदी माध्यम से पढ़ाते
रहे, जिन छात्र-छात्राओं को पढ़ने के लिए चुना गया, वे भी अब तक तो हिंदी माध्यम में ही पढ़ते आए थे. तब उनसे कैसे अपेक्षा थी
कि वे रातों-रात चमत्कारिक प्रदर्शन करते ? पता चला कि
अंग्रेजी में जब पढ़ने-पढ़ाने में बाधा पैदा होने लगी तो पढ़ाई की भाषा वो हो गयी, जिसे लोकप्रिय तौर पर हिंगलिश कहा जाता है !
खोट शिक्षकों और छात्र-छात्राओं में नहीं, उस तंत्र में है, जो अपने प्रयोग की सनक के लिए
शिक्षकों और छात्र-छात्राओं को झोंक देता है, लेकिन इस
प्रयोग के विफल होने की कोई ज़िम्मेदारी अपने सिर पर नहीं लेना चाहता.
-इन्द्रेश
मैखुरी
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