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नरेंद्र सिंह नेगी : अनवरत बहती रहे प्रेम की धार

 






उत्तराखंड के ख्यातिलब्ध गायक, गीतकार, संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी जी का आज जन्मदिन है. 12 अगस्त 1949 को जन्में नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में उत्तरखंडी समाज का लगभग हर रंग, हर अक्स मौजूद है. उत्सव, पीड़ा, विरह, प्रकृति, पहाड़ी जीवन की दुरूहता, पलायन, संघर्ष और भी जाने क्या-क्या.










लेकिन यदि कहा जाये कि नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों का प्रमुख स्वर क्या है तो मोटे तौर पर दो भाव चिन्हित किए जा सकते हैं, एक- पहाड़ की पीड़ा और दूसरा प्रेम.


1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में मुंशी प्रेमचंद ने जो ऐतिहासिक भाषण दिया था, उसका शीर्षक था- साहित्य का उद्देश्य. उसमें प्रेमचंद कहते हैं कि साहित्य का साधन- सौन्दर्य और प्रेम है. नरेंद्र सिंह नेगी अपने गीतों में साहित्य के इस साधन का व्यापक तौर पर इस्तेमाल करते हैं.


प्रेम उनके गीतों में बार-बार नए-नए रंगों, रूपों, उपमाओं और बिंबों में प्रकट होता है. जब वे अपनी गीत यात्रा के पाँच दशक पूरे करने को हैं तो प्रेम का यह निरंतर बहता, हर बार नए बिंबों, उपमाओं में प्रकट होने वाला झरना भी उनके गीतों में इतना ही लंबा सफर तय कर चुका है.












प्रेमिका की कल्पना में खोया हुआ प्रेमी खुद से ही पूछ रहा है कि :

“इनी होली की, उनी होली

मेरी सौंजड्या वा बांद कनी होली दौं  कुजाणी

लाल होली बुरांस जनि कि फ़्यूंली जनि पिंगली ........ ”

(ऐसी होगी कि वैसी होगी,

 मेरी संगिनी वो रूपसी कैसी होगी कौन जाने

लाल बुरांस सी, फ़्यूंली सी पीली..... ”


और ऐसी तमाम उपमाओं से गीत लबरेज है- वो पेड़ सी होगी कि लता सी होगी, फूल सी सुंदर, कोमल हृदया होगी,कैसी होगी, नागपुर चमोली की होगी, कौणी के बाल जैसी होगी, टिहरी जौनपुर की होगी, मक्खन के ढेर जैसी, रवाईं जौनसार की होगी या चौंदकोट सलाण की, कैसी होगी ! चौमास की हरियाली होगी या होगी उजले चाँद सी, पानी सी पतली, धौलीगंगा जैसी श्फ़्फ़ाक, रूप का खजाना होगी, सपनों की रानी कैसी होगी !


“इखी ई पिरथीमा,ये ही जलम मा

देखि त छैंच,कख देखि होली”


गीत में फिर नयी उपमाओं के साथ प्रेम और प्रियसी का वर्णन है और यह प्रश्न भी कि उसको देखा कहाँ होगा, सपना हुआ होगा कि वहम रहा होगा !


और इन गीतों में जो प्रेयसी है, वह फकत एक युवती नहीं है, उसके लिए जिन बिंबों और उपमाओं का प्रयोग किया गया है, वे सिर्फ उसके नख-शिख का वर्णन नहीं हैं बल्कि वे पहाड़ में, प्रकृति में मौजूद सौन्दर्य के तमाम रंग हैं. यानि जब प्रेमिका की कल्पना है तो पहाड़ के सौन्दर्य की कल्पना से अलग नहीं है बल्कि वह प्रकृति में समाई हुई है.


 यह गीत

माळू ग्वीराळू का बीच खिलीं  सकिनी आहा

गोरी मुखड़ि मा हो लाल उंठुड़ी जनि आहा 


बांज अंयांरूं का बोण, फुल्यूं बुरांस कनू  
हैरि साड़ी मा बिलोज लाल पैर्युं जनू ”


यूं तो प्रकृति के सौंदर्य के वर्णन का गीत है. लेकिन प्रकृति में मौजूद इन रंगों का प्रेमिका के रूप में मानवीकरण है. जैसे जो लाल फूल खिले हैं, वे गोरे मुखड़े में लाल होंठों सरीखे हैं, हरे पेड़ों के बीच खिला बुरांस, हरी साड़ी में पहने गए लाल ब्लाउज सरीखा है.


इस तरह देखें तो प्रेमिका में प्रकृति के सारे रंग हैं और प्रकृति, फूल, पत्ते, पेड़, पहाड़, सब प्रेमिका सरीखे हैं, वे सर्वाधिक प्रेम के पात्र हैं, प्रेम उपजाने-पनपाने के कारक भी हैं, उनके बिना प्रेम और प्रेमिका की कल्पना भी नहीं है !


और वह प्रेम कैसा है ? वह हिन्दी फिल्मों के प्रेम सरीखा उच्चशृंखल या आक्रामक नहीं है. वह राजकपूर के जमाने के “तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी” से लेकर सलमान खान के जमाने के “तू हाँ कर या ना कर, हम तुझ को उठा कर ले जाएँगे” सरीखा आक्रामक भाव उसमें नहीं है.


वह तो बस अपने में खोया है, अपने भीतर ही गुन रहा है  :


छौं मि घंघतो मा

तू किले हैंसि ह्वेली

माया च त जोड़ि जा

भरम बोदि त तोड़ी जा

छौं मि घंघतो मा...


(हूँ मैं ऊहापोह में / तू क्यूँ हंसी होगी

प्रेम है तो जोड़ जा/भ्रम है तो तोड़ जा )


 बहुदा यह प्रेम, गूंगे के गुड़ जैसा है, अपनी कल्पना में खोया हुआ, स्वयं के लिए प्रेम की कामना करता, लेकिन अपने भीतर ही गुनता-धुनता, उलझता हुआ.


वो ऐसा प्रेमी है, जिसे ज्यादा की दरकार भी नहीं है, वो कहता है कि :


“मैं कू एकी चुमकी बस भौत तेरी माया की

मिन बंड्यू क्या कन......

कुछ न दी भरोसु दे दी ”


उसे चुटकी भर प्रेम ही चाहिए, वो कह रहा है कि मैंने ज्यादा का क्या करना है, कुछ न दे तो भरोसा ही दे दे ! प्रेम का ऐसा संतोषी स्वरूप अन्यत्र तो देखने में नहीं आता है.  

 

 

और जब यह प्रेम मुक्कमल होता है तब ?

तब :

 छारू माटू सी छोळ्ये ग्यौं
तुमरी माया मा”

यानि राख़ और मिट्टी सा एकमेव हो गया,तुम्हारे प्रेम में.


 यूं राख़ और मिट्टी कोई सौन्दर्य के न प्रतीक हैं, न अलग-अलग देखने पर इनमें कोई रूप सौन्दर्य परिलक्षित होता है. लेकिन नरेंद्र सिंह नेगी के यहां राख़ और मिट्टी का एकदूसरे में मिलना, प्रेम का एक नया और ज़मीनी बिंब गढ़ता है. जैसे कहते हों कि प्रेम में एकमेव होने के लिए तो राख़ और मिट्टी सरीखा जमीनी होना होगा !


यह प्रेम, गूंगे के गुड़ सरीखा तो है, लेकिन अपने में सिमटा हुआ, अपने तक सीमित नहीं है. बल्कि प्रेमिका की झलक भर पाने से बेहद उदार, उद्दात हो उठता है. नरेंद्र सिंह नेगी के यहां जो प्रेम है, उसमें सबके मंगल की कामना है.


वे कहते हैं :


“बंडी दिनों मा दिखे, आज

दिन आज को जुगराज.....

फूल्यां फल्यां वो पाखा वो पैंडा
हैरा भैरा रयाँ पुंगड़्यों का मेंडा
जौं सारयों बीच हिटी की तू ऐई
तौं सारियों खार्यों हो नाज...”


यानि बहुत दिनों में दिखी आज, दिन आज का जिंदाबाद, जिन ढलानों से चल कर तू आई, वो फलें-फूलें और जिन खेतों से तेरे कदम गुजरे, उनमें मनों-टनों अनाज हो जाये ! प्रेम की यह बेहद उदार-उद्दात कल्पना है.  कितनी उत्पादक कामना है कि जिन खेतों से चल कर तू आए, उनमें बेतहाशा अनाज उपजे.


प्रेम का ऐसा उदार, उद्दात, उत्पादक होना ही, उसके होने का अर्थ है, इसी अर्थ में वह दुनिया की जरूरत है.


 ऐसे समय में जब नफरत फल-फूल रही है, तब दुनिया को ऐसे प्रेम की जरूरत है, जिसमें सिर्फ प्रेमिका की नहीं, बल्कि उसके पेड़, पौधों, चट्टानों, ढलानों, पगडंडियों और खेतों की भी बेहतरी की कामना है.


नरेंद्र सिंह नेगी के प्रेम गीतों का संसार जितना व्यापक-वृहद है, यह लेख उसकी झलक मात्र है

 

नरेंद्र सिंह नेगी जी के गीतों में अनवरत बहता यह प्रेम का सोता, निरंतर फले-फूले, दुनिया समाज इस प्रेम के सोते में ही डूब जाएँ, यही कामना है.


जिगर मुरदाबादी का शेर है :


“उनका जो फर्ज है वो अहल-ए-सियासत जाने

मेरा पैगाम मोहब्बत है, जहां तक पहुंचे”


नरेंद्र सिंह नेगी जी का मोहब्बत का पैगाम हमारे पूरे समाज में फैले, पसरे, व्यापे, इसी कामना के साथ नरेंद्र सिंह नेगी जी को जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई, ढेरों-ढेर शुभकामनाएं.


-इन्द्रेश मैखुरी



 

 

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