बागेश्वर विधानसभा के उपचुनाव में भाजपा की जीत के बाद ट्विटर पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एक तस्वीर साझा करते हुए लिखा कि भाजपा के वर्तमान और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ने उनसे भेंट कर बागेश्वर उपचुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत पर बधाई दी ! जीत ऐतिहासिक
कैसे ?
2022 के विधानसभा चुनाव में चन्दन राम दास बागेश्वर
से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े और जीते थे. तब उन्होंने 32211 वोट प्राप्त कर जीत हासिल
की थी. दूसरे नंबर पर कॉंग्रेस के रणजीत दास रहे थे, जिन्हें
20070 वोट मिले थे.
भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे चन्दन राम दास के
आकस्मिक निधन के कारण बागेश्वर में उपचुनाव अपरिहार्य हो गया. भाजपा ने दिवंगत चन्दन
रामदास की पत्नी पार्वती दास को अपना प्रत्याशी बनाया. 2022 के विधानसभा के चुनाव में
दूसरे नंबर पर रहे कॉंग्रेस के रणजीत दास उपचुनाव से ऐन पहले भाजपा में शामिल हो गए.
2022 में आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ कर 16109 वोट लाने वाले बसंत कुमार को
कॉंग्रेस ने अपनी पार्टी में शामिल कर उम्मीद्वार बनाया.
भाजपा की पार्वती दास चुनाव जीतीं हैं, यह सच है पर जीत ऐतिहासिक तो नहीं है, जैसा मुख्यमंत्री
दावा कर रहे हैं ! भाजपा की पार्वती दास को 33247 वोट मिले, जबकि
कॉंग्रेस के बसंत कुमार को 30842 वोट मिले और भाजपा महज 2405 वोटों से चुनाव जीत सकी
है. जिस विधानसभा क्षेत्र से साल भर पहले भाजपा 12141 वोट से
चुनाव जीती थी, वहाँ सहानुभूति, सरकारी
मशीनरी का पूरा ज़ोर और साम-दाम-दंड-भेद की आजमाइश के बाद जीत का अंतर सिर्फ 2405 वोट
है और आप इसे ऐतिहासिक बताते हैं, मुख्यमंत्री जी ! अगर इसमें
कुछ ऐतिहासिक है तो वो है, जीत के अंतर में जबरदस्त गिरावट !
जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है कि बागेश्वर उपचुनाव जीतने
के लिए मुख्यमंत्री पुष्कर धामी और उनकी सरकार ने कोई कसर उठा नहीं रखी थी. सरकारी
तंत्र का उपयोग कैसे चुनाव के लिए हो रहा था, प्रशासनिक अफसरों के
व्यवहार के अलावा भी, उसके बहुतेरे उदाहरण हैं.
एक नमूना देखिये. 03 सितंबर के अखबारों में खबर छपी कि
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चमोली जिले के आपदा ग्रस्त इलाकों का हवाई सर्वे कर
हालात का जायजा लिया. जिस दिन की यह खबर है, उस दिन चटक धूप थी
तो पहले-पहल यह समझ नहीं आया कि मुख्यमंत्री को सूखे में आपदा ग्रस्त क्षेत्रों का
हवाई दौरा करने की जरूरत क्यूँ आन पड़ी ? थोड़ा सोचने पर समझ
आया कि सरकारी हेलीकाप्टर लेकर मुख्यमंत्री बागेश्वर तो जा नहीं सकते थे, लेकिन बागेश्वर प्रचार में देहरादून से तुरत-फुरत पहुँचने के लिए
हेलीकाप्टर जरूरी था. इसलिए बागेश्वर के पड़ौसी जिले चमोली के आपदा प्रभावित
क्षेत्रों का हवाई सर्वे के बहाने से वे सरकारी हेलीकाप्टर लेकर आए, फिर ग्वाल्दम में हेलीकाप्टर छोड़ 40-42 किलोमीटर दूर बागेश्वर सड़क मार्ग
से पहुँच गए. सरकारी हेलीकाप्टर का प्रयोग भी हो गया और आचार संहिता उल्लंघन से भी
बाल-बाल बच गए.
05 सितंबर को बागेश्वर में मतदान था. जब उसी दिन से
विधानसभा के मॉनसून सत्र की शुरुआत रखी गयी तो दिन का यह चुनाव भी समझ से परे था.
लेकिन विधानसभा सत्र में दिवंगत चंदन रामदास के श्रद्धांजलि कार्यक्रम का फेसबुक
लाइव चलाये जाने से स्पष्ट हो गया कि बागेश्वर में मतदान के दिन ही विधानसभा सत्र
की शुरुआत क्यूँ की गयी !
बागेश्वर में उपचुनाव के दौरान सरकारी शिकंजा किस कदर कसा हुआ था, इसका अंदाजा बागेश्वर की जिलाधिकारी अनुराधा पाल के एक मीडिया कर्मी के संबंध में दिये गए बयान के वायरल वीडियो से लगता है. उक्त वीडियो में जिलाधिकारी कह रही हैं कि उसके पास उत्तराखंड की दूसरे प्रेस का पास होगा, लेकिन बागेश्वर का तो नहीं है, वो बागेश्वर का सर्टिफाइड प्रेस वाला तो नहीं है !
चुनाव का कवरेज करने
तो देश क्या विदेश का मीडिया भी आता है. पर बागेश्वर जिले की जिलाधिकारी तो उत्तराखंड
के अन्य स्थानों के पत्रकार को भी कवरेज करने की अनुमति देने को तैयार नहीं थी !
आखिर यह किस चीज की पर्देदारी हो रही थी, जिसका बाहरी
पत्रकारों की मौजूदगी से खुलासा होने का डर था ?
बेरोजगार संघ के अध्यक्ष बॉबी पँवार बागेश्वर गए तो
उन्हें बागनाथ मंदिर जाते हुए गिरफ्तार कर लिया. उत्तराखंड में रोजगार की लूट के
खिलाफ आवाज उठाए जाने से किसको डर लग रहा था, कौन था, जो बेरोजगार संघ के इन युवाओं की बागेश्वर में उपस्थिति मात्र से भयभीत
था ?
वामपंथी पार्टियों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की कोशिश की तो उत्तराखंड के मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यालय द्वारा जारी पत्र के बावजूद इस प्रेस कॉन्फ्रेंस की अनुमति देने में जितनी आनाकानी की जा सकती थी, की गयी, जितने अवरोध पैदा किए जा सकते थे, किए गए. उत्तराखंड में 2002 से विधानसभा के चुनाव और उपचुनाव होते रहे हैं. लेकिन यह पहला मौका था कि जब प्रेस कॉन्फ्रेंस क्या बोला जाएगा, यह पहले ही लिखित में मांगा गया.
प्रशासन के इस रवैये के खिलाफ वामपंथी पार्टियों ने चुनाव आयोग को शिकायत की और जिलाधिकारी अनुराधा पाल के खिलाफ जांच के आदेश भी हो गए हैं.
पर सवाल फिर वही है कि वामपंथी पार्टियों के बोलने भर से कौन भयभीत था, किसने प्रेस कॉन्फ्रेंस रोकने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया ?
ये चंद उदाहरण हैं, ऐसी लंबी फेरहिस्त गिनाई जा सकती है.
इसके बावजूद वह “ऐतिहासिक” बताई जीत, मामूली अंतर से
ही हासिल हो सकी. चुनाव परिणाम से यह साफ है कि कॉंग्रेस जीत की दहलीज तक पहुँच ही
गयी थी, बस वह
दरवाजे के अंदर प्रवेश नहीं कर सकी. प्रत्याशी
चयन कॉंग्रेस का अच्छा था. सहानुभूति की लहर और सत्ता मशीनरी के
प्रचंड दबाव के बावजूद वह अपने वोटों को बढ़ा कर जीत के दरवाजे के बहुत निकट तक लाने
में कामयाब रही. इससे आगे जाने के लिए जो कुशल चुनावी प्रबंधन चाहिए, वह संभवतः थोड़ा कमजोर था. देश के पैमाने पर इंडिया गठबंधन बनने के बावजूद
राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन के भागीदार दलों तक उत्तराखंड कॉंग्रेस नहीं पहुँच
सकी. इसीलिए वामपंथी दलों ने इंडिया गठबंधन के कर्तव्य का निर्वहन करते हुए संविधान
और लोकतन्त्र के हक में भाजपा को हराने वाली ताकत को वोट देने की अपील तो की, लेकिन संवाद के अभाव में इससे अधिक प्रचारात्मक भूमिका, जो वाम दल अदा कर सकते थे, वो नहीं हो सका. सपा का तो
उम्मीद्वार ही चुनाव लड़ गया, जो 637 वोट भी लाया. जिस चुनाव में
जीत-हार का अंतर महज 2405 हो, वहाँ 637 वोट लाने वाले प्रत्याशी
को अपने पक्ष में लाना कॉंग्रेस को जीत के दरवाजे के और निकट पहुंचा सकता था. उत्तर प्रदेश के घोसी में इंडिया गठबंधन का घटक होने
के नाते कॉंग्रेस ने सपा का समर्थन किया. बागेश्वर में इसी तर्ज
पर कॉंग्रेस अपने लिए सपा के नेतृत्व से समर्थन की मांग कर सकती थी. लेकिन इस मामले
में भी चूक हुई.
बागेश्वर का उपचुनाव कॉंग्रेस और इंडिया गठबंधन के लिए
उम्मीद जगाने वाला है, मिल कर, मजबूती
से लड़ा जाये तो जीत की दहलीज तक पहुंचा जा सकता है और हार की दहलीज लांघी भी जा सकती
है. जाहिर सी बात है उत्तराखंड में इंडिया गठबंधन का बड़ा दल होने के नाते सर्वाधिक
प्रयास भी कॉंग्रेस को करना है और बड़ा दिल भी उसे ही दिखाना होगा.
रोजगार की लूट, महिला अपराध, दलित उत्पीड़न, सांप्रदायिक उन्माद के खिलाफ तो निश्चित
ही लड़ाई लड़नी ही होगी और इसके लिए तो सड़क का मोर्चा ही मजबूत करना होगा. सड़क का मोर्चा
जितना मजबूत होगा, उतना ही इन मुद्दों का असर चुनावी मोर्चे पर
भी दिखाई देगा.
-इन्द्रेश मैखुरी
1 Comments
इनके लिए तो सबकुछ ऐतिहासिक ही है खाने से सोने तक
ReplyDeleteऐतिहासिक की परिभाषा आती भी है इन्हें जो इतिहास को ही नहीं मानते