मूलनिवास और भूमि कानून का मामला बेहद संवेदनशील है, इसे बेहद समझदारी के साथ देखने-समझने-हल करने की आवश्यकता है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी राज्य के संसाधनों-जल, जंगल, जमीन पर पहला अधिकार, उस राज्य के मूलनिवासियों का होता है, होना चाहिए. राज्य की नियुक्तियों में भी पहली प्राथमिकता उस राज्य के मूलनिवासियों को मिलनी चाहिए.
लेकिन मूल निवास को बहाल किए जाने की मांग को पहाड़-मैदान और बाहरी- भीतरी के लबादे में लपेटना, अंध क्षेत्रीयतावादी उन्माद खड़ा करने की कोशिश है. यह कुछ लोगों को सस्ती लोकप्रियता तो दिला सकता है, लेकिन वह राज्य की उस बड़ी आबादी के हितों को सुरक्षित नहीं कर सकती,जिसके नाम पर यह अंध क्षेत्रीयतावाद का वितंडा खड़ा करने की जुगत की जा रही है.
क्षेत्रीय हितों या किसी राज्य के हितों की सुरक्षा और अंधक्षेत्रीयतावाद के बीच की रेखा बेहद बारीक है. यह अफसोस है कि राज्य के बेहद संवेदनशील सवालों का हल, अंधक्षेत्रीयतावादी उन्माद के जरिये तलाशने की कोशिश की जा रही है.
राज्य में यदि जल-जंगल-जमीन जैसे संसाधनों की बड़ी पूंजी द्वारा की जा रही लूट को अंधक्षेत्रीयतावादी उन्माद संबोधित नहीं करता बल्कि वह एक तरह से उसकी तरफ पीठ फेर लेता है. बड़ी पूंजी द्वारा राज्य के संसाधनों को हड़पे जाने के बीच यदि छोटे व्यवसाय, कारोबार और नौकरियों में आने वालों को बड़ा शत्रु बना कर पेश किया जाने लगे तो समझा जा सकता है कि अंततः यह किसका हित साधेगा.
बीते बरस उत्तराखंड में यूकेएसएसएससी से लेकर विधानसभा तक जो नौकरियों की लूट हुई, वो लुटेरे कौन थे ? अंकिता भंडारी हत्याकांड में वीआईपी को बचाने में जिस सत्ता ने अपना पूरा दम लगा दिया, उस सत्ता के जो चेहरे हैं, वे कोई बाहर से नहीं आए हुए हैं. ये सब इसी राज्य के वाशिंदे हैं, मूल निवास बनेगा तो हाकम सिंह रावत, चन्दन मनराल और संजय धारीवाल का भी बनेगा ! विधानसभा में बैकडोर से अपने चहेतों को नियुक्त करने वाले सारे पूर्व अध्यक्ष और बैकडोर से नियुक्ति पाने वाले भी इस श्रेणी में आएंगे ही !
इस मसले पर यह भी ध्यान रखने की बात है कि देश के विभाजन के समय शरणार्थी हो कर आई बड़ी आबादी को तराई में बसाया गया, उसका कोई दूसरा राज्य नहीं है तो उसके हितों की सुरक्षा भी हमारा ही जिम्मा है. दलित- गरीब- भूमिहीनों के लिए भी मूल निवास का सवाल दूर की कौड़ी ही है.
भू कानून के मसले पर भी हमारा यह मानना है कि उत्तराखंड की ज़मीनों की बेरोकटोक बिक्री का जो अभियान विधानसभा से कानून पास करवा कर त्रिवेन्द्र रावत ने शुरू किया और पुष्कर सिंह धामी ने आगे बढ़ाया, उसे खत्म करने की जरूरत है. यह हैरत की बात है कि वही सरकार जिसने पूरा पहाड़ बेचने के लिए विधानसभा से कानून पास किया, उसी भाजपा सरकार ने “लैंड जेहाद” का वितंडा खड़ा कर राज्य में सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने का अभियान भी चलाया.
भू कानून के लिए गठित एक समिति की रिपोर्ट का परीक्षण करने के लिए साल भर बाद दूसरी कमेटी बनाने की पुष्कर सिंह धामी सरकार की घोषणा, हास्यास्पद और आँखों में धूल झोंकने वाली है.
भू कानून के मसले पर पहली जरूरत है कि 2018 में भू कानून में हुए संशोधन को रद्द किया जाये. कृषि भूमि के गैर कृषि कार्यों के लिए खरीद पर रोक लगे. पर्वतीय कृषि को जंगली जानवरों के आतंक से बचाते हुए उसे उपजाऊ और लाभकारी बनाने के विशेष उपाय किए जाने की जरूरत है.
उत्तराखंड को समग्र भूमि सुधार की आवश्यकता है. इसके लिए तत्काल भूमि बंदोबस्त की आवश्यकता है. भूमिहीनों को, जिसमें पर्वतीय क्षेत्रों में अधिकांश दलित आबादी है, भूमि का वितरण किए जाने की आवश्यकता है और उसके पश्चात चकबंदी हो.
बेरोजगारी, रोजगार की अवसरों की लूट, पलायन और संसाधनों की लूट से उत्तराखंड जूझ रहा है, जिसके लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं. संसाधनों की लूट बड़ी पूंजी द्वारा की जा रही है. इन के विरुद्ध संघर्ष करने का कठिन-कठोर रास्ता चुनने के बजाय बाहरी-भीतरी का सस्ता रास्ता अपनाया जाएगा तो सनसनी जरूर पैदा होगी परंतु हल नहीं निकलेगा और यह प्रकारांतर से लुटेरी सत्ता और लूट की लाभार्थी बड़ी पूंजी की ही मदद करेगा.
समर भंडारी
राष्ट्रीय परिषद सदस्य
भाकपा
राजेंद्र सिंह नेगी
राज्य सचिव
माकपा
इन्द्रेश मैखुरी
राज्य सचिव
भाकपा (माले)
1 Comments
जबसुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन सितम्बर 1950 से मूल निवासी मानने की बात है उसकी जमीन उत्तराखंड में है या नहीं ऐसा जब कुछ भी नहीं है तो ये प्रश्न ही पैदा क्यों किया जारहा है कि जो क्षेत्र से बाहर के हैं उनका क्या होगा
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