(2016 में लोक गायक चंद्र सिंह राही के दुनिया से रुखसत होने पर लिखा गया लेख)
चन्द्र सिंह राही,ग्रामोफोन,कैसेट,सी.डी. दौर की पहली पीढ़ी के गढ़वाली लोकगायकों में से एक थे.उनका जन्म 28 मार्च 1942 को हुआ और 10 जनवरी 2016 को वे इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए.वे बेहतरीन आवाज के स्वामी थे.उनकी लहराती आवाज उम्र के सात दशक बाद भी पूरे सुरीलेपन के साथ कायम थी.ख़ास तौर पर जब वे गीत के बीच में अलाप लेते थे-“आँ...हाँ..हाँ.हो..” या “ओ....हो...हरी हो” तो आवाज की खनक सुनने वालों के भीतर भी छनछ्नाहट पैदा करती थी.गाते हुए,बिना सुर पर पकड़ खोये, वे अपनी आवाज को कितने भी ऊँचे स्केल तक ले जा सकते थे.शब्द बहुत ताकतवर न भी हों तो राही जी की आवाज का जादू,तब भी गाना सुनवा ही देता था.वे जागर गायें या प्रेम गीत, उनकी आवाज, सब जगह कर्णप्रिय थी.कई बार होता है कि जागर गाने वालों के मुंह से प्रेम गीत सुनना अटपटा लगता है और प्रेम गीत गाने वाले, जागर गाने में असहज होते हैं.लेकिन राही जी के लिए गायन की कोई विधा कठिन नहीं थी,उनके लिए सब सहज था.यह शायद इसलिए था क्यूंकि लोकसंगीत उन्हें विरासत में मिला था.वे एक जागरी परिवार में जन्मे थे.संगीत की विधिवत शिक्षा ने उनके हुनर को और निखारने में योगदान किया था.वे डौंर-थकुली(डमरू-थाली), सिणाई(शहनाई), बांसुरी, ढोल, हारमोनियम आदि वाद्यों को कुशलतापूर्वक बजा लेते थे.हुड़का तो उनकी गायकी का अभिन्न साथी था ही.
चन्द्र सिंह राही को देख कर ऐसा लगता था,जैसे-सबसे नाराज,एक अक्खड़ मिजाज का व्यक्ति चला आ रहा हो. लेकिन जैसे ही हुड़का उनके हाथ में गमकना शुरू हुआ और कंठ से स्वर फूटने लगे तो मिठास भरी आवाज से भरा,गीत-संगीत में रचा-बसा व्यक्तित्व आपके सामने उपस्थित हो जाता था.
रोजगार की तलाश में बहुत कम उम्र में वे पहाड़ छोड़ कर दिल्ली चले गए.रोजगार के लिए बांसुरी बेचने से लेकर कई काम उन्होंने किये.लेकिन इस सारी जद्दोजहद में पहाड़ और यहाँ का संगीत उनके भीतर बसा रहा.पहाड़ का मतलब चन्द्र सिंह राही के लिए गढ़वाल-कुमाऊँ दोनों था.उन्होंने गढ़वाली गीत गाये तो कुमाउनी गीत भी गाये.कुछ गीत तो गढ़वाली-कुमाउनी दोनों ही भाषाओँ में गा दिए.जैसे एक लोकगीत है “स्वर्ग तारा यो जुन्याली रात,को सुणलो,तेरी मेरी बात”.यह मूलतः कुमाउनी लोक में प्रचलित प्रेमगीत है.चन्द्र सिंह राही ने इसे कुमाउनी में गाया और एक गढ़वाली वर्जन भी उन्होंने इसका गा दिया.इसी तरह “हिलमा चांदी को बटना” राही जी का लोकप्रिय गीत है,जो उन्होंने कुमाउनी में गाया है.इन गीतों को सुनने से फिर यह समझ पुख्ता होती है कि संगीत, भाषा और क्षेत्र की बाधाओं को अपने सुरीलेपन से पाट देता है.उत्तराखंडी पहचान हो,गढ़वाली-कुमाउनी राजनीतिक बंटवारा न रहे इसपर भी उन्होंने गीत गाया-“न गढ़वाली,न कुमाउनी हम उत्तराखंडी छों,एक च प्राण हमारो,एक जैसो खून”.
पहाड़ उनके रचनाकर्म में अपने विविध रंगों में मौजूद है.वहां पहाड़ के प्रेम के गीत हैं,ग्वालदम की गाड़ी में मन लगने का गीत है तो गाडी के पीपलकोटी पहुँचने पर कमला की बोई(माँ) से रोटी बनाने का इसरार भी है.पहाड़ का आदमी,पहाड़ की खेती तो है ही लेकिन जानवर भी हैं और बार-बार हैं.स्याल(सियार),सौली(सेही), बाघ,रिख(भालू),बैल अनिवार्य किरदारों की तरह राही जी के गीतों में मौजूद हैं.उनके लोकप्रिय गीत-“सौली घुरा घुर दगड़्या” को ही सुनिए.सौली के एक गाँव में घुस आने पर उसे पकड़ने के लिए पूरे गाँव को सौली को मारने के लिए पुकार लग रही है. सौली को पकड़ने के क्रम में होने वाली घटनाएँ,पूरे गाँव की हलचल गीत में हैं.उसमें समधन का रिख का शिकार बनना भी इस कदर सुरीले भोलेपन से गाया गया है, गोया वह भी कोई रोचक घटना हो.उस समय के पहाड़ी ग्रामीण जीवन की सामूहिकता गीत में प्रकट होती है.सामन्ती अकड और सामंतों के बेहतर चीज पर अपना दावा जताने पर भी टिपण्णी है कि “पधानों मा नि सुणाण भै बन्दो”.इसी तरह एक और गीत है “मेरो फ्वां बाघ रे”,जिसमे इस बात का विवरण है कि लैंसडाउन में जब बाघ आया तो किस-किस तरह के दृश्य उपस्थित हुए.कई बार यह सोचकर हैरत होती है कि रिख,बाघ तो घातक जानवर हैं,तब उनका आना इतना मनोरंजक कैसे है.लेकिन पहाड़ में जब मनोरंजन के साधन बहुत नहीं रहे होंगे,तब इन जानवरों से मुकाबला करने के दौरान घटित होने वाली घटनाएँ भी बाद में मनोरंजन का सबब बनती होंगी,जो राही जी के गीतों में प्रकट होती हैं.वैसे भी पहाड़ में किसी बाहरी तत्व से ज्यादा लोगों का संघर्ष प्रकृति से ही है.इसी प्रकृति के साथ जूझना भी है,इसके साथ जीना भी है.लेकिन आज की विडम्बना यह है कि पलायन और जंगली जानवरों की मार से पहाड़ तबाह हो रहा है.शायद राही जी भी इस बात को समझ रहे थे कि “सौली घुरा घुर दगड़्या” और “मेरो फ्वां बाघ रे” वाला दौर बीत गया है.इसलिए राज्य बनने के बाद का चित्र उन्होंने भी ऐसा खींचा-
“डांडी कांठी जन की तन च
मनखी बदली ग्यायी
उत्तराखंडो रीति-रिवाज, चाल बदली ग्यायी
मोल माटू मनखी यखो उन्द बोगी ग्यायी ,
गौ गाला कुड़ी पुन्गडी,सब बांजा पोड़ी ग्यायी
पुंगड़्यों माँ गोणी, बांदर, सुन्गरों को राज
बीज को नसीब नि होणु द्वी माणी नाज”
(पहाड़ तो वैसे ही हैं पर आदमी बदल गया,उत्तराखंड का रीति रिवाज,चाल बदला गया. गोबर,मिट्टी,मनुष्य सब मैदानों को बह गए,गाँव,गली,मकान,खेत सब बंजर हो गए.खेतों में लंगूर,बंदर,सुअरों का राज,बीज के लिए तक नहीं नसीब हो रहा अनाज.)
पालतू पशुओं में बैल राही जी के गीतों का प्रमुख पात्र है. बैल पर एक गीत है-“हिट बलदा सरासरी रे”. दूसरा गीत है “ढांगा रे,ढांगा रे,बै दे सरा फांगा,रुक जा नेसुड़ा तोड़ के”.यह खिचड़ी भाषा यानि गढ़वाली-हिंदी का गीत है.धुन इसकी वही है जो हिंदी गीत “कांची रे कांची रे,प्रीत मेरी साँची” की है.इसके बारे में राही जी बताते थे कि यह दरअसल एक नेपाली लोकधुन है.हिंदी फिल्म वालों द्वारा यह न स्वीकारे जाने से गुस्साए राही ने हल्या (हलवाहा) द्वारा बैल की मनुहार करता गीत उसी धुन पर रच कर, हिंदी फिल्म वालों का अपनी तरह से प्रतिवाद किया.लेकिन बैल के साथ जितना आत्मीय वार्तालाप गीत में है,उससे लगता है कि वह पशु नहीं कोई संगी-साथी है.ये दरअसल पहाड़ की विशेषता भी है.यहाँ गौशाला में रहने वाला पशु भी कतिपय मामलों में परिवार का सदस्य जैसा ही है.पालतू पशुओं के प्रति यह आत्मीयता संभवतः सभी कृषि और पशुपालन आधारित समाजों की विशेषता होती होगी.
.”रूप की खाज्यानी”,”भाना ए रंगीली भाना,दुर ऐजै बांज कटण”,गीतों में निश्छल प्रेम की धारा राही जी ने बहाई.सामान्य परिस्थितियों में हास-परिहास राही जी, गीतों के जरिये पैदा करते थे.एक गीत है-“सर मुंगा पंथ्येणी मुंगा.”इस गीत में जो अंग्रेजी का प्रयोग है,वो हंस-हंस के पेट में बल डाल देता है.कौन प्रेमी है जो अपनी प्रेमिका से कहेगा-“व्हाई डिड यू नॉट कम टू मुंगा” और भाई साहब इस अंग्रेजी में तो मुंगा प्रेमिका से स्थान हो गयी है.प्रसाद खाने का निवेदन देखिये राही जी मार्का अंग्रेजी में- “हॉट-हॉट स्वीट खांदी केला का पत्तों मा सर”. पहाड़ी अंग्रेजियत के इस भोलेपन पर मुस्कुराया ही जा सकता है.
राही जी अक्सर मंचों से इस बात का जिक्र करते थे कि वे दस साल तक उत्तरकाशी के प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता कमला राम नौटियाल के साथ रहे.एक बार इस लेखक से भी उन्होंने कहा था कि वे शुरूआती दौर में कम्युनिस्ट पार्टी में रहे थे.यह किस्सा यूँ हुआ कि तकरीबन दस या उससे एक-दो वर्ष अधिक पहले, मैं श्रीनगर(गढ़वाल) से देहरादून जाने के लिए बस अड्डे पर खड़ा था.प्रख्यात संस्कृतिकर्मी प्रो.डी.आ.पुरोहित ने मुझे कहा कि राही जी टैक्सी में अकेले जा रहे हैं,तुम उनके साथ चले जाओ.फिर प्रो.पुरोहित ने ही मुझे राही जी वाली टैक्सी में बैठा भी दिया.रास्ते में राही जी ने कहा कि वो भी कभी कम्युनिस्ट पार्टी में रहे हैं.फिर अलग क्यूँ हुए,पूछने पर उन्होंने दो वजहें भिन्न-भिन्न बतायी.एक वजह कुछ व्यक्तिगत किस्म की थी,जिसका जिक्र यहाँ करना आवश्यक नहीं है.दूसरी वजह उन्होंने बतायी कि हेमवतीनंदन बहुगुणा ने समझाया कि खाने-कमाने का स्कोप कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं है.बड़े नेता भी अपने बड़े होने का कैसा बेजा इस्तेमाल करते हैं ! राही जी कम्युनिस्ट पार्टी में न रहे,कांग्रेस का प्रचार भी कभी-कभी करते रहे.पर क्या इससे वे धनधान्य परिपूर्ण हो पाए?ऐसा दिखता तो नहीं था.उसी दिन राही जी ने बताया था कि उन्होंने लोकगीतों की ही तरह काफी संख्या में जनगीत भी संगृहित किये हैं.राही जी द्वारा संगृहित लोकगीतों की ही की तरह,उन जनगीतों को भी जनता तक पहुंचाने के प्रयास किये जाने चाहिए.
राही जी क्षेत्रीय भाषा के लोक कलाकार थे.लेकिन वे क्षेत्रीय संकीर्णता से ग्रसित नहीं थे. देश के साथ किसी क्षेत्र का क्या सम्बन्ध होता है,इस पर उनका नजरिया बेहद स्पष्ट था.दूरदर्शन को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- “हम भारतीय हैं,हमारी बोली, भाषा,लोक परंपरा विलुप्त हो गयी तो भारत कहाँ हैं?हम सही भारतीय तब हैं जब हम अपने हर क्षेत्र की, हर प्रान्त की लोक संस्कृति को, लोक संपदा को बचाने का प्रयास करेंगे.” लोक को नष्ट करके कोई देश मजबूत नहीं हो सकता,यह सबक, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय विकास के दानव को समझाने की, हमारे समय में सर्वाधिक आवश्यकता है.
राही जी को श्रद्धांजलि.उनके गीत तो हमारे हम ‘राही’ बने ही रहेंगे.
-इन्द्रेश मैखुरी
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