हिंदी फिल्मों की यह त्रासदी है कि फिल्म-दर-फिल्म आप
अभिनेता को एक ही जैसे अदा-ओ-अंदाज़ में देखने के लिए अभिशप्त हैं.निश्चित ही कुछ अपवाद
हैं, बेहतरीन अपवाद भी हैं, लेकिन आम तौर पर मामला एकरसता
वाला ही है. जिनको फिल्म का नायक या स्टार
कहा जाता है, वे तो हर फिल्म में किरदार नहीं होते बल्कि स्टार
ही होते हैं. लेकिन जिनको चरित्र अभिनेता भी कहा जाता है, वे
भी चरित्र का अभिनय कम करते हैं, अपने ही पुराने अंदाज़ का दुहराव
अधिक करते हैं. फिर आप उनको किसी साक्षात्कार में बोलते हुए सुनते हैं तो पाते हैं
कि अरे, ये तो निजी जीवन में भी वैसे ही बोल रहा है, जैसे पर्दे पर बोलता दिखता है. यानि इस बेचारे के पास अभिनय नाम की कोई चीज
है ही नहीं या रह ही नहीं गयी है.
ऐसे ही एक अभिनेता का नाम है पीयूष मिश्रा. उनको आप किसी
स्टेज शो में, किसी पत्रकार से बातचीत में या किसी फिल्म में देखें
तो मुंह में बेर की गुठली फंसे अंदाज़ में, एक ही तरह से गले से
शब्दों को बाहर धकेलते, वे नज़र आएंगे.
रंगमंच की पृष्ठभूमि
वाले अन्य कलाकारों की तरह ही पीयूष मिश्रा भी शुरुआती दौर में प्रतिभा के ताजे झोंके
की तरह आए. धीरे-धीरे यह ताजा झोंका, निजी झोंक में उन्मत्त, खुद को दोहराते, बड़बोले व्यक्ति में तब्दील हो गया. एक ऐसा व्यक्ति जिसकी बात, अंदाज़ और जीवनशैली में एक बासीपन, एक क्षरण, स्पष्ट देखा जा सकता है.
त्रासदी यह है
कि एक आत्ममुग्ध माध्यम के आत्ममुग्ध कलाकार को धीरे-धीरे जब उसके बासी कढ़ी जैसे काम
के लिए तवज्जो मिलनी बंद हो जाती है तो वह आत्मनिरीक्षण नहीं कर पाता. अलबत्ता उसके
भीतर एक अवसरवाद पनपता है, जो धारा के साथ बहती नाव पर सवार होने
के लिए अपने अतीत और उसमें खुद के साथ हुए अन्याय के झूठे या आधे झूठे किस्म के किस्से
गढ़ता है.
पीयूष मिश्रा ने भी ऐसा ही करना शुरू किया. उनके लहरों
के साथ बहती नौका पर सवार होने का अवसर तलाशने का दौर, वह है, जब देश में एक फासिस्ट हुकूमत अपनी सत्ता को
पक्का करने के लिए प्रोपोगैंडा फिल्मों को भरपूर प्रोत्साहन
दे रही है. ऐसी प्रोपोगैंडा फिल्में भी कोई नयी बात नहीं है. हिटलर के जमाने में नाज़ी
जर्मनी में भी ऐसी फिल्म खूब बनी थी पर हिटलर का जो हश्र हुआ, वो ये फिल्में भी ना रोक सकी !
बहरहाल, अपने अभिनय की बासी कढ़ी में उबाल न आता देख, पीयूष मिश्रा फड़फड़ाने लगे और स्वयं को सत्ता का वफादार सिद्ध करने के लिए सबसे पहले उन्होंने बिना किसी प्रसंग-संदर्भ के वामपंथ को गरियाना शुरू किया. लल्लनटॉप के एक इंटरव्यू में जैसी बेसिरपैर की बातें, उन्होंने वामपंथ को लेकर कही, वो सही में वामपंथ के साथ थोड़ा अरसा भी रहा व्यक्ति, कतई नहीं कह सकता. दावा भले ही उनका था कि वे बीस साल वामपंथ के साथ रहे हैं, लेकिन यह साफ नज़र आ रहा था कि वर्तमान सत्ता और उसके पोषित फ़िल्मकारों की नज़रों में आने के लिए वे कपोल-कल्पित बातें ही कह रहे हैं.
विडियो साभार : लल्लनटॉप
बीस साल वामपंथ के साथ काम करने के पीयूष मिश्रा के दावे
की पोल, कुछ ही दिन बाद, उसी लल्लनटॉप के मंच पर उनके साथी अभिनेता
मनोज वाजपेयी ने खोल दी. लल्लनटॉप को दिये साक्षात्कार में मनोज वाजपेयी ने साफ-साफ
कहा कि पीयूष मिश्रा कभी भी वामपंथी नहीं रहे, वे तब भी वही थे, जो आज हैं !
विडियो सौजन्य : लल्लनटॉप
लेकिन तमाम मंचों पर पीयूष मिश्रा अपने बड़बोलेपन का प्रदर्शन
करते रहे, भगत सिंह को पागल कहते रहे, फ़ैज़ को भी गाते रहे, वामपंथ को भी गरियाते रहे. वामपंथ को गरियाना, उनका
एक सुरक्षित दांव भी था क्यूंकि वामपंथ से किसी तरह का खतरा तो था नहीं और सत्ता की
नज़रों में आने का अवसर और बनता है !
लगता है वामपंथ को गरियाने का इनाम, पीयूष मिश्रा को मिलना कुछ-कुछ शुरू हुआ है. लंबे अरसे बाद वे एक प्रोपोगैंडा
फिल्म में दिखाई दे रहे हैं.
देश का प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है- जवाहर लाल नेहरू
विश्वविद्यालय. यह विश्वविद्यालय वर्तमान सत्ता की आँखों में निरंतर कांटे की तरह चुबता
रहता है. बीते एक दशक में इसे लांछित और तहस-नहस करने का कोई मौका वर्तमान सत्ता व
उसके चहेतों ने नहीं छोड़ा है. इतिहास में पढ़ाया जाता है कि आक्रांताओं ने जब किसी देश
पर हमला किया तो उन्होंने सबसे पहले विश्वविद्यालय नष्ट किए, पुस्तकालयों को आग लगाई. अब हम अपनी आँखों के सामने यह होता देख रहे हैं.
इसी उद्देश्य के साथ, एक प्रोपोगैंडा फिल्म बनाई गयी है- जेएनयू- जिसका फिल्म वालों
ने पूरा नाम रखा है- जहांगीर नेशनल युनिवर्सिटी ! फिल्म का नाम ऐसा इसलिए रखा गया है
ताकि जेएनयू और अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा को भुनाया जा सके.
जेएनयू के नाम पर बनी इस प्रोपोगैंडा फिल्म का एक गीत
रिलीज हुआ है. उस गीत के बोल हैं- मैं नहीं मानता,मैं नहीं जानता
! पीयूष मिश्रा ने इस गीत को गया है और जी म्यूजिक कंपनी द्वारा जारी विवरण बता रहा
है कि इसे किसी दानिश राणा ने लिखा है.
यह गीत बौद्धिक दिवालियेपन और बौद्धिक चोरी का मिश्रण
है.
असल में यह गीत और शीर्षक- मैं नहीं मानता,मैं नहीं जानता- दोनों ही चोरी और पैरोडी का मिलजुला रूप है. पैरोडी भी उसी
की गयी है, जिस मूल गीत को चुराया गया.
“मैं नहीं जानता, मैं नहीं मानता ”- पाकिस्तान के प्रसिद्ध शायर हबीब जालिब की रचना है, जो खुद भी वामपंथी झुकाव वाले व्यक्ति थे. उनके इस गीत का शीर्षक है- दस्तूर. यह अयूब खान की तानाशाही के विरुद्ध लिखा गया गीत है, जिसके लिए हबीब जालिब को जेल जाना पड़ा था. तानाशाहों और कठमुल्लों के खिलाफ गीत-कविता-शायरी लिखने के लिए हबीब जालिब को 25 साल पाकिस्तान की जेलों में गुजारने पड़े थे.
पीयूष मिश्रा, दानिश राणा एंड कंपनी ने निरंकुश सत्ता के खिलाफ तन कर खड़े रहने वाले शायर
हबीब जालिब का गीत चुराया, उसकी कुछ पैरोडी की और पीयूष मिश्रा
की बासी कढ़ी शैली में, भारत की निरंकुश सत्ता की सेवा में उसे
समर्पित कर दिया.
पीयूष मिश्रा गा रहे हैं-
“पूंजीवाद से मुझको डराते हो क्यूँ, मुझको लेनिन के सपने दिखाते हो क्यूँ ”
https://www.youtube.com/watch?v=uFCFmn3d0Tw
वहीं हबीब जालिब की मूल रचना देखिये –
“क्यूं डराते हो ज़िंदां की दीवार से,
जुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता ”
मिश्रा प्यारे और उनके कथित गीतकार ने सत्तापरस्ती में
ज़िंदां की दीवार यानि जेल की दीवार की जगह पूंजीवाद को रख दिया ! तुम्हारे लिए सुनहरा
हो, लेकिन बहुतों के लिए पिंजरा ही है पूंजीवाद, सत्ता के
दुलारे बनने को बेताब मिश्रा !
लेनिन का सपना, सत्ता के तलवों की छांव
में सोने को बेताब कोई पीयूष मिश्रा न देखना चाहे तो न देखे,
दुनिया में मेहनतकशों की मुक्ति का पहला सफल प्रयोग लेनिन ने किया था और रहती दुनिया
तक जुल्म करने वालों और ज़ुल्मतों के साये में पलने वालों को लेनिन का सपना खौफजदा करता
रहेगा !
मिश्रा गीत में गा रहे हैं कि चे ग्वारा तो सिर्फ चेहरा
भर है ! हो सकता है मिश्रा जी और उनके तथाकथित गीतकार दानिश राणा ने चे ग्वारा को केवल
टी-शर्ट्स पर ही देखा हो, इसलिए अपनी कूढ़मगजी में उन्हें लगा होगा
कि वो चेहरा भर है ! लेकिन जिन्होंने चे की मोटर साइकल डायरीज़ पढ़ी है या उस पर बनी
फिल्म देखी है, वे चे को, उनके बनने की
प्रक्रिया को बखूबी जानते हैं. जरा भी इतिहास की समझ रखने वाले जानते हैं कि क्यूबा
की क्रांति में फिदेल कास्त्रो के साथ सबसे महत्वपूर्ण भूमिका चे ग्वारा की थी. वे
क्रांति के बाद क्यूबा में वित्त मंत्री भी रहे. फिर लैटिन अमेरिका के अन्य देशों में
क्रांति करने निकल पड़े और बोलीविया के जंगलों में अमेरिका की कुख्यात जासूसी एजेंसी
सीआईए के हाथों शहीद हुए. कुपढ़ों और कूढ़मगजों के लिए सिर्फ चेहरा भर होगा- चे गवारा
! मुक्तिकामी जनता के संघर्षों का तो पोस्टर बॉय है- चे ग्वारा !
और एक जगह तो पूरे का पूरा ही हबीब जालिब को टेप डाला
गया है :
“इस खुले झूठ को ज़ेहन की लूट को, मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता”
बिना कॉमा-फुल स्टॉप के, हबीब जालिब का एक-एक शब्द उड़ा लिया गया है ! बस फर्क सिर्फ इतना है कि जालिब
ने हुक्मरानों के खिलाफ लिखा-गाया, ये हुक्मरानों की कदमबोसी
में लिख-गा रहे हैं !
जेहन की लूट तो तुम खुलेआम कर रहे हो मिश्रा और राणा प्यारे
! तो कहना क्या चाहते हो कि अपने द्वारा की गयी इस बौद्धिक चोरी को, इस बौद्धिक लूट को तुम लूट नहीं मानते ! तुम्हारे मानने-न मानने से क्या फर्क
पड़ता है, तुम्हारी चोरी और कूढ़मगजी दोनों तो पकड़ी जा चुकी है
!
अजी लानत भेजिये, इन “कमल” के नीचे के कीचड़ में लोटने को बेताब नकली दुनिया
के फर्जी सितारों को और हबीब जालिब का असली गीत सुनिए !
दुनिया के किसी भी कोने में तानाशाहों को थर्राने के लिए
हबीब जालिब के अंदाज़ में- मैं नहीं जानता, मैं नहीं मानता- कहना
ही असली कला है, कविता है, शायरी है !
जो मिश्रा एंड कंपनी ने किया, वो चाटुकारिता में की गयी चोरी है, जो कचरे में डाले
जाने के योग्य है और घृणा व गंदगी के बजबजाते कीटाणुओं के लोटने के ही काम आएगी !
-इन्द्रेश मैखुरी
1 Comments
बहुत बढ़िया और सोचने पर मजबूर कर देने वाला लेख, क्योंकि मेरी नज़र में भी अभी तक पीयूष मिश्रा एक विचारशील कलाकार थे, लेकिन वामपंथ को लेकर उनकी बातें हमेशा बेसिर पैर लगीं पर सोचा था, हो सकता है ये उनका निजी अनुभव रहा हो। उनके बोलने के तरीक़े को लेकर मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन भगत सिंह और फैज़ की आड़ लेकर उन्हीं के विचारों को गरियाने की ये कुत्सित और नाकाम कोशिश है। कलाकार समाज में अपनी छाप छोड़ता है, इसलिए ये एक ज़रूरी लेख है, ताकि कोई मुगालता न रहे!
ReplyDeleteशुक्रिया।