उत्तराखंड में उच्च न्यायालय को शिफ्ट करने की बहस
नए सिरे से खड़ी हो गयी है. यह बहस स्वयं उच्च न्यायालय, नैनीताल की मुख्य
न्यायाधीश न्यायमूर्ति ऋतु बाहरी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खंडपीठ द्वारा 08
मई 2024 को दिये गए फैसले के बाद खड़ी हुई है. उक्त फैसले में न्यायालय ने
उत्तराखंड की मुख्य सचिव को निर्देशित किया कि वे एक महीने के भीतर राज्य के उच्च न्यायालय
को शिफ्ट करने के लिए सही जगह की तलाश करके बताएं.
नैनीताल के पर्यटक स्थल होने और पर्यटकों की भीड़भाड़ होने
के अलावा जो तर्क उच्च न्यायालय को शिफ्ट करने के लिए दिये गए हैं, उन्हें पढ़ कर पहला ख्याल तो यही आता है कि जिन्होंने उच्च न्यायालय को नैनीताल
में स्थापित करने का निर्णय लिया, उनके पास कोई दूरदृष्टि नहीं
थी. अपने फैसले में न्यायालय ने लिखा कि “जब राज्य बना उस समय न्यायाधीशों के तीन पद
स्वीकृत थे,बीस साल में यह संख्या 11 तक पहुँच गयी है, अगले पचास साल में यह आठ गुना बढ़ जाएगी. इसलिए अगले पचास साल में हमें अस्सी
जजों के लिए जमीन चाहिए.”
अगले पचास साल की यह जो चिंता, उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश महोदया और उनके खंडपीठ के दूसरे न्यायाधीश
कर रहे हैं, उस संदर्भ में तो उच्च न्यायालय को स्थापित करते
हुए ही सोचा जाना चाहिए था ! यह सोचना चाहिए था कि जब न्यायाधीशों, वकीलों और वादकारियों की संख्या बढ़ेगी तो क्या जहां उच्च न्यायालय को स्थापित
किया जा रहा है, वहां पर इस बढ़ती संख्या की जरूरतों और भार को
वहन करने लायक पर्याप्त जगह और क्षमता है ?
उच्च न्यायालय के फैसले के दूसरे हिस्से को पढ़ कर, इस बात का आभास होता है कि उत्तराखंड में व्यवस्था किस कदर चरमराई हुई है
! मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ऋतु बाहरी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने
अपने सात पन्नों के फैसले में लिखा है कि “नैनीताल में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत
खराब है. कई सारी जनहित याचिकाओं के बावजूद स्वास्थ्य सुविधाओं में कोई सुधार नहीं
हुआ है. नैनीताल के बीडी पांडेय अस्पताल के विस्तार के लिए जमीन उपलब्ध नहीं हैं. वहां
डॉक्टर नहीं हैं, जो डॉक्टर हैं, नैनीताल
में सेवा देने में उनकी कोई रुचि नहीं है. पिछले कई सालों से नैनीताल में कार्डिलॉजिस्ट नहीं थे और जो कार्डिलॉजिस्ट उपलब्ध हैं, वे बहुत अधिक वेतन मांग रहे हैं.”
मीलॉर्ड, स्वास्थ्य सुविधाओं
की यह समस्या सिर्फ जहां आपका गद्दीस्थल है, वहीं नहीं है बल्कि
पूरे पहाड़ की ऐसी ही दुर्दशा है. लेकिन सवाल यह है कि यदि राज्य की सबसे बड़ी अदालत, नैनीताल जैसे प्रमुख पर्यटन नगर में बैठ कर भी स्वास्थ्य सेवाओं के मसले पर
इस कदर लाचार है तो फिर आम जन को बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की प्राप्ति कहां से होगी
? उच्च न्यायालय के फैसले में स्वास्थ्य सेवाओं की दशा पर लिखा
गया यह पैराग्राफ, राज्य की सरकार के मुंह पर करारा तमाचा है.
उच्च न्यायालय को शिफ्ट करने की यह बहस नयी नहीं है.बल्कि
2019 से तो उच्च न्यायालय से ही यह बहस संचालित हो रही है. जनवरी 2019 में वरिष्ठ अधिवक्ता
एमसी कांडपाल ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमेश रंगनाथन को पत्र लिख कर
उच्च न्यायालय को हल्द्वानी के पास रानीबाग में बंद पड़ी एचएमटी की फैक्ट्री के परिसर
में शिफ्ट करने की मांग उठाई. तर्क तब भी यही थे कि नैनीताल में भीड़ बढ़ रही है, पर्यटक स्थल है, ट्रैफिक का मसला है, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है आदि, आदि. तत्कालीन मुख्य
न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमेश रंगनाथन ने आम जन से सुझाव मांगे और उन सुझावों की पीडीएफ़
फाइल बना कर उच्च न्यायालय,नैनीताल की साइट पर अपलोड कर दी गयी.
उच्च न्यायालय को शिफ्ट करने के मामले में दिये गए सुझावों की पीडीएफ़ फाइल लगभग 500
पन्नों से अधिक है.
उस समय स्वयं मैंने भी माननीय उच्च न्यायालय को लिखित में सुझाव दिया था.
उसमें उच्च न्यायालय को गैरसैण ले जाने के पक्ष में तीन पन्नों का पत्र लिखा.
मेरा पत्र भी अन्य पत्रों
की तरह उच्च न्यायालय की वेबसाइट पर अपलोड हुआ था.
इस बार भी आम जनता से सुझाव मांगे गए हैं. लेकिन इस बार
वकीलों और आम जनता से केवल यही पूछा गया है कि वे शिफ्टिंग के पक्ष में हैं या नहीं.
केवल हां या ना, में ही जवाब देना है. यानि स्थान सुझाने का विकल्प
इस बार ना तो वकीलों के पास है और ना ही आम जनता के पास. इससे बेहतर होता कि उच्च न्यायालय
को 2019 में दिये गए सुझावों का ही अवलोकन कर लिया जाता !
उच्च न्यायालय तो फिर भी वकीलों और आम लोगों से राय शुमारी
करना चाहता है. लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी को जनता की राय मांगे जाने
से ख़ासी आपत्ति है. उन्होंने बाकायदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को पत्र लिख कर
कहा है कि वे इस मामले में जनमत संग्रह से बचें. राज्य जनता के आंदोलन से बना, आप भी मंत्री-मुख्यमंत्री-सांसद आदि हो सके, इसमें भी
जनता की भूमिका थी. फिर जनता की राय लेने से इतनी आपत्ति क्यूँ ? कोश्यारी जी फरमाते हैं कि कल कोई भी पीआईएल लेकर विभाग,जिला, तहसील की मांग के लिए कोर्ट चला जाएगा. कोर्ट जाने
की नौबत तो इसलिए आती है कोश्यारी बुबू क्यूंकि आपकी सरकारों के इंजन तो डबल हैं पर
निर्णय लेने की क्षमता शून्य है !
उच्च न्यायालय के 08 मई के फैसले में सकारात्मक बात है, उच्च न्यायालय को हल्द्वानी में गौलापार शिफ्ट करने से इंकार करते हुए दिये
गए तर्क. मुख्य न्यायाधीश ऋतु बाहरी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने अपने
फैसले में लिखा है कि “उच्च न्यायालय को गौलापार में स्थापित करने के लिए 26 हैक्टेयर
जमीन प्रस्तावित की गयी है, लेकिन इसमें से 75 प्रतिशत भूमि में
पेड़ हैं. अदालत नहीं चाहती है कि नया उच्च न्यायालय बनाने के
लिए किसी भी पेड़ को उखाड़ा जाये. इसलिए इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम उस जमीन का
इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.”
बहरहाल, स्वास्थ्य सुविधाओं
के अभाव, खराब कनैक्टिविटी आदि जो सारे तर्क उच्च न्यायालय के
फैसले में मौजूद हैं, वे तो उच्च न्यायालय को किसी मैदानी भूभाग
में ले जाने की तरफ ही इंगित करते हैं. शुरुआती तौर पर तो आईडीपीएल, ऋषिकेश में उच्च न्यायालय की पीठ बनाने की चर्चा भी सामने आई थी. लेकिन उच्च
न्यायालय के फैसले में आईडीपीएल का जिक्र नहीं है. हालांकि यह भी विचित्र विरोधाभास
होता कि स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव का हवाला दे कर उच्च न्यायालय की पीठ जहां स्थापित
की जाती, वह बंद दवा का कारख़ाना है !
बहरहाल, यह मुमकिन है कि उच्च
न्यायालय के फैसले के अनुसार न्यायालय किसी सुगम, सपाट, सुविधा संपन्न स्थान पर शिफ्ट कर ही दिया जाये ! परंतु अधिकांश पहाड़ी भूभाग
वाले लोगों को इलाज, शिक्षा जैसी सुविधाओं के लिए कब तक लगातार
मैदानी इलाकों में शिफ्ट होना होगा ? उनके लिए न्याय का कोई आलय
होगा, जो दूरस्थ, दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों
में भी उनके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार
और न्याय सुगम बना दे,मी लॉर्ड !
-इन्द्रेश मैखुरी
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