31 जुलाई को हिंदी कथा साहित्य के बेजोड़ शिल्पी प्रेमचंद
की जयंती होती है. 31 जुलाई 1880 को प्रेमचंद का जन्म हुआ और 08 अक्टूबर 1936 को उन्होंने
इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
चित्र : श्री सुरेश लाल, रामनगर
इस बीच उन्होंने जो साहित्य रचा, वो समाज के कमजोर, हाशिये के तबकों
के पक्ष में खड़ा साहित्य है. उनके साहित्य का ताप ऐसा था कि उर्दू
में नवाब राय के नाम से लिखी कहानियों का संग्रह “सोज़-ए-वतन” ब्रिटिश साम्राज्य ने
जब्त कर लिया. उसके बाद ही उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया.
अँग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ टिप्पणियों और भारत के उत्पीड़ित जनगण का पक्ष लेने के
लिए उनके संपादन में निकलने वाली “हंस” पत्रिका को भी अंग्रेजों
के कोप का भाजन बनना पड़ा.
ये तो संक्षेप में हुई प्रेमचंद की बात. लेकिन इस लेख
को लिखने के पीछे असल वजह वो प्रश्न है, जो इसके शीर्षक में
पूछा गया है. उत्तराखंड के एक पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं- श्रीमान अशोक कुमार. बीते
दिनों वे देहरादून में दैनिक जागरण अखबार द्वारा आयोजित कार्यक्रम- संवादी- में तशरीफ
लाये थे ! यूं कार्यक्रम का नाम- संवादी- भी कुछ अपनी समझ में नहीं आया. इस कार्यक्रम
के नाम से पहली बार पता चला कि संवाद की कोई बहन भी है, जिसका
नाम संवादी है ! वरना तो आज तक थोड़ा-बहुत जो कुछ पढ़ा-लिखा, उसमें
कभी संवाद का स्त्रीलिंग संवादी पढ़ने में नहीं आया !
वैसे प्रेमचंद ने जागरण नाम का पत्र भी निकाला. लेकिन
वे अगर जान पाते कि आगे चल कर, उनके द्वारा निकाले
गए जागरण के नाम के आगे दैनिक जोड़ कर, खबरों और पत्रकारिता का
ऐसा चूँ-चूँ का मुरब्बा बनाया जाएगा तो वे इस नाम से ही तौबा कर लेते ! उनके समय में
तो ऐसा न हुआ और पाश कह ही गए हैं कि “यह कुफ्र हमारे ही समयों में होना था” !
बहरहाल संवाद की बहन संवादी नाम वाले उक्त कार्यक्रम में
पधारे उत्तराखंड के पूर्व डीजीपी अशोक कुमार साहेब के एक वीडियो का अंश देखने को मिला.
कहीं और मिला होता तो यह जानने की इच्छा होती कि उन्होंने इस मसले पर आगे-पीछे और क्या
कहा. चूंकि वीडियो उनके ही फेसबुक पेज पर पोस्ट किया गया था तो यह इस मसले पर उनका
आधिकारिक पूर्ण वक्तव्य ही माना जाएगा.
वीडियो में जो कुछ कह रहे हैं, उसके सिलसिले में हिंदी में एक लोकप्रिय मुहावरा याद आया- अधजल गगरी छलकत
जाये !
पहले पूर्व डीजीपी साहेब की कही हुई बात देखिये.
वे फरमाते
हैं- “ हमने क्या गलती कर रखी है, हिंदी साहित्य की विशेष बात करूँ
तो प्रोब्लम कहां है कि एक हमने बना दिया प्रगतिशील साहित्य,
उसको अगर आप ट्रांसलेशन करें तो प्रोग्रेसिव लिट्रेचर- तो प्रोग्रेसिव लिट्रेचर क्या
होना चाहिए, जो समय के साथ चले, जो समय
के साथ प्रोग्रेस करे. यहां प्रगतिशील का मतलब है प्यौरली लेफ़्टिस्ट. कौन कितना लेफ़्टिस्ट
है वो प्रगतिशील है. उन्होंने कहा प्रेमचंद प्रगतिशील नहीं है, मतलब इससे बड़ी ट्रेजडी क्या होगी, प्रेमचंद से बड़ा मानवतावादी
कोई नहीं, उससे बड़ा कोई गरीब के साथ खड़ा होने वाला नहीं है, फिर भी वो कह रहे हैं प्रेमचंद लेफ़्टिस्ट नहीं है, भई
मार्क्सवाद ही प्रगतिवाद है क्या ?”
इतना ही वीडियो अशोक कुमार साहब ने अपने फेसबुक पर पोस्ट
किया है.
जबर्दस्त एडिटिंग के साथ, साउंड इफैक्ट और विजुअल्स के साथ उक्त वीडियो पोस्ट किया
गया है ! इसका मतलब यह है कि इस संदर्भ में
वे इसे अपनी सर्वाधिक मार्के की बात समझते हैं !
हुजूर रिटायर्ड़
डीजीपी साहेब, पहली बात
यह कि प्रगतिशील का मतलब प्यौरली लेफ़्टिस्ट नहीं होता. लेफ़्टिस्ट
अनिवार्यतः प्रगतिशील होता है, लेकिन प्रगतिशील जरूरी नहीं कि लेफ़्टिस्ट
हो.
लेकिन असल सवाल यह नहीं है, असल सवाल यह है कि प्रेमचंद को प्रगतिशील नहीं मानते, यह दिव्य ज्ञान अशोक कुमार साहेब को कहाँ से प्राप्त हुआ ? उनके पोस्ट किए हुए वीडियो से यह स्पष्ट नहीं होता. वीडियो में वे कहते सुने
जाते हैं- “उन्होंने कहा कि प्रेमचंद प्रगतिशील नहीं है !” ये जिन “उन्होंने” का वे
उल्लेख कर रहे हैं, उनके नाम, पता,चेहरे की शिनाख्त अशोक कुमार साहेब द्वारा पोस्ट किए हुए वीडियो में नहीं होती.
लेकिन जो बात वो कह रहे हैं, उससे वे इशारा करते प्रतीत होते
हैं कि लेफ़्टिस्ट लोग प्रेमचंद को प्रगतिशील नहीं मानते !
पुलिस की ट्रेनिंग में उनको सिखाया गया होगा कि लेफ़्टिस्टों
को अपना “मारक महादुश्मन” (पाश की कविता-पुलिस के सिपाही से- में प्रयुक्त) समझना है. ऐसा लगता है कि ट्रेनिंग में सिखाये गुर
का तीस-चालीस साल में गुब्बारा फुलाते-फुलाते वो यहां तक पहुँच गए कि लेफ़्टिस्ट प्रेमचंद
को प्रगतिशील नहीं मानते ! स्पष्ट तौर पर यह
बात उनकी कपोल-कल्पना से ज्यादा कुछ भी नहीं है.
हुजूर अशोक कुमार साहेब, इस देश में 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई. 09-10 जुलाई 1936
को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना सम्मेलन हुआ. जानते हैं,प्रगतिशील लेखक संघ के उस स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता किसने की थी ? जनाब, प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता
प्रेमचंद ने की थी.
और जनाब रिटायर्ड डीजीपी साहेब, जिस बात को कहते हुए आप समझ रहे हैं कि आपने बड़ी तोप मार दी, बड़ी मौलिक बात कह दी, उस बात को तो खुद प्रेमचंद ने
1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में दिये हुए अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में खारिज कर दिया था ! “साहित्य
का उद्देश्य” शीर्षक के साथ उनका यह भाषण प्रकाशित है. गूगल कीजिये, आसानी से मिल जाएगा.
https://samkaleenjanmat.in/purpose-of-literature-premchand/
उक्त भाषण में वे कहते हैं “.... साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील
होता है. अगर यह उसका स्वभाव न होता तो शायद वह साहित्यकार ही न होता........... उसका
दर्द से भरा हृदय इसे सहन नहीं कर सकता कि एक समुदाय क्यूँ सामाजिक नियमों और रूढ़ियों
के बंधन में पड़कर कष्ट भोगता रहे ? क्यूँ न ऐसे सामान इकट्ठा किए जाएं कि
वह गुलामी और गरीबी से छुटकारा पा जाये ?......”
प्रेमचंद में प्रगतिशीलता और
आधुनिकता तो इस कदर है कि प्रेमचंद के नए-नए “अधजल गगरी, छलक” खैरख़्वाहों के रोंगटे खड़े हो जाएं !
अब जयशंकर प्रसाद को लिखे प्रेमचंद
के पत्र के इस अंश को ही देखिये. 24 जनवरी 1930 को जयशंकर प्रसाद को उनके उपन्यास-
कंकाल- के लिए बधाई देते हुए प्रेमचंद ने उन्हें यह पत्र लिखा. उसमें प्रेमचंद लिखते
हैं- “.....पूर्वजों की कीर्ति का भविष्य निर्माण में भाग होता है और बड़ा भाग होता
है. लेकिन हमें तो नए सिरे से दुनिया बनानी है. अपनी किस पुरानी वस्तु पर गौरव करें
? दान पर ? तप पर ? वीरता क्या थी ? अपनी ही भाइयों का रक्त बहाना ? दान क्या था ? एकाधिपत्य का नग्न नृत्य और तप क्या था
? वही जिसने आज कम से कम 80 लाख बेकारों का बोझ हमारी गरीब जनता
पर लाद दिया है ? अगर 5 रुपया प्रतिमास भी एक साधू की जीविका
पर खर्च हो तो लगभग 20 करोड़ हमारी गाढ़ी कमाई के उसी पुराने तप की आदर्श के भेंट हो
जाते हैं. किस बात पर गर्व करें ? वर्णाश्रम धर्म पर जिसने हमारी
जड़ खोद डाली ?....”
प्रेमचंद तो इस कदर आधुनिक और
प्रगतिशील हैं जनाब. कहां यह प्रेमचंद की प्रगतिशीलता
और कहां आज के आधुनिक दौर में मां-बाप को कंधे पर ढोने वाले को आधिकारिक सोशल मीडिया
पेज से महिमामंडित करने की पुरातनपंथी सोच !
“जेल” शीर्षक वाली कहानी में
प्रेमचंद मुख्य पात्र मृदुला के मुंह से कहलवाते हैं – “लोग कहते हैं जुलूस निकालने
से क्या होता है. इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित
हैं, अटल हैं और मैदान से हटे नहीं.”
तो हुजूर कहाँ जीवन भर पुलिस
की चाकरी, जुलूस निकालने वालों को सत्ता व्यवस्था
के शत्रु रूप में देखना और कहां प्रेमचंद हैं जो कहते हैं कि जुलूस निकालना जिंदा होने, अटल होने और मैदान में डटे रहने का सबूत है !
आप मानिए कि चेतन भगत, शेक्सपेयर के भी ताऊ हैं, इस पर हमको कुछ
नहीं कहना है ! या फिर जिस खेल यूनिवर्सिटी के आप कुलपति हुए हैं, उसके यूजीसी की डिफ़ाल्टर लिस्ट से बाहर होने का जश्न मनाइए ! पर बिला वजह
प्रेमचंद और प्रगतिशीलता के मामले में क्यूँ पड़ते हैं !
जनाब रिटायर्ड डीजीपी साहेब,
प्रेमचंद को किसी “पुलिस प्रोटेक्शन” की आवश्यकता नहीं है, ना
ही पुलिस का कैरेक्टर सर्टिफिकेट उन्हें चाहिए. खामखां ऐसा ज्ञान मत बघारिए कि प्रेमचंद
को प्रगतिशील नहीं मानते ! प्रेमचंद इस देश में प्रगतिशील लेखक आंदोलन के प्रथम अध्यक्ष
हैं. हो सकता है आपको प्रगतिशीलों और लेफ़्टिस्टों से दिक्कत हो, प्रेमचंद को ऐसी कोई दिक्कत नहीं थी !
-इन्द्रेश मैखुरी
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