cover

सिंघम टाइप डॉयलॉग बोलने से ज्यादा,कानून के दायरे में रहना जरूरी कार्यवाहक डीजीपी साहेब !

 


उत्तराखंड पुलिस के कार्यवाहक महानिदेशक अभिनव कुमार लगता है, पिछले कुछ दिनों से पुलिस की हिंदी फिल्मों वाली छवि से अति प्रभावित हो गए हैं या फिर वे कुछ झल्लाहट में हैं. बात जो भी हो, लेकिन जो कुछ वो कह रहे हैं, उससे अखबार की सुर्खियां भले बन जाएं, कानून का अतिक्रमण करती ही उनकी बात नज़र आती है.


बीते दिनों कार्यवाहक डीपी अभिनव कुमार कुमाऊँ के दौरे पर थे. वहां सनसनीखेज किस्म के फिल्मी डॉयलॉग नुमा शीर्षकों की उन्होंने झड़ी लगा दी.


अल्मोड़ा से उनका बयान अखबारों में छपा कि " उत्तराखंड में एनकाउंटर वक्त की मांग ". 





एनकाउंटर यानि मुठभेड़ ! पुलिस कानून व्यवस्था चाक- चौबंद रखे,अपराध पर अंकुश रखेगी, यह तो समझ में आता है. लेकिन पुलिस एनकाउंटर पर जोर देगी, यह कहना तो कानूनी तरीके से व्यवस्था बनाने में असफलता की स्वीकारोक्ति है.


वैसे कार्यवाहक डीजीपी साहेब जब एनकाउंटर को वक्त की मांग बता रहे हैं तो क्या इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को वे भूल गए या सनसनीखेज डॉयलॉग बोलने के लिए उन्होंने उन फैसलों को अनदेखा करना ही बेहतर समझा ? 


एनकाउंटर के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने 2011 और 2014 के अपने फैसलों में विस्तृत टिप्पणी की. 2014 के फैसले में तो उच्चतम न्यायालय ने एनकाउंटर होने की दशा में क्या- क्या करना चाहिए, इसको लेकर विस्तृत गाइडलाइन जारी की. इनमें एनकाउंटर में मौत होने की दशा में तत्काल एफआईआर दर्ज करना और एनकाउंटर की जांच सीआईडी अथवा दूसरे थाने की पुलिस द्वारा तथा एनकाउंटर में शामिल पुलिस अफसर से उच्च पदस्थ अफसर द्वारा जांच करना शामिल है.


दोनों ही फैसलों में उच्चतम न्यायालय ने एनकाउंटर को कानून सम्मत नहीं माना.


23 सितंबर 2014 को उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर एम लोढा और न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन की खंडपीठ ने पीयूसीएल एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामले में अपने फैसले में कहा कि " कानून द्वारा शासित समाज में यह आवश्यक है कि न्यायेत्तर हत्याओं की ठीक तरीके से और स्वतंत्र जांच हो ताकि न्याय हो सके." इस मामले में न्यायालय का यह मत था कि संविधान के अनुच्छेद 21 तहत प्रदत्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार हर व्यक्ति को उपलब्ध है और राज्य को भी उसका उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है.


एक अन्य फैसले में तो उच्चतम न्यायालय ने पुलिस एनकाउंटरों के संदर्भ में अत्यंत कठोर टिप्पणी की. प्रकाश कदम एवं अन्य बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीशों, न्यायमूर्ति मारकंडेय काटजू व न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा ने कहा कि फर्जी एनकाउंटर और कुछ नहीं बल्कि " ऐसे लोगों द्वारा ठंडे दिमाग से की गयी क्रूर हत्याएं हैं, जिनसे कानून को कायम रखने की अपेक्षा की जाती है." दोनों न्यायमूर्तियों ने उक्त फैसले में लिखा कि जहां पुलिस वालों के खिलाफ फर्जी एनकाउंटर का मामला पुलिस के विरुद्ध सिद्ध हो जाए तो उन्हें मृत्यु दंड दिया जाना चाहिए. उच्चतम न्यायालय ने अपने इस फैसले में लिखा " हम पुलिस वालों को चेतावनी देते हैं कि 'एनकाउंटर' के नाम पर की गयी हत्या से वे सिर्फ इस नाम पर नहीं बच जायेंगे कि वे अपने उच्च अधिकारियों या ऊंचे पदों पर बैठे राजनीतिज्ञों के आदेशों का पालन कर रहे थे."


उच्चतम न्यायालय के एनकाउंटर के विरुद्ध इतने स्पष्ट आदेशों के बावजूद कार्यवाहक पुलिस महानिदेशक, उत्तराखंड को एनकाउंटर खंड क्यों बनाना चाहते हैं ? 


और यह जैसे कुछ कम था ! अगला डॉयलॉग जो उन्होंने बोला वो तो बेहद अमानवीय और उनके पद की गरिमा को धूसरित करने वाला था. कोई गली का गुंडा भी यह कहे तो भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. तब पुलिस महानिदेशक का कामकाज देख रहा व्यक्ति ऐसा संवाद बोले तो कैसे स्वीकार्य हो सकता है ? 


दरअसल पिछले दिनों जब कार्यकारी पुलिस महानिदेशक अभिनव कुमार ने कुमाऊं के दौरे पर हल्द्वानी में जनसंवाद कार्यक्रम आयोजित किया. उक्त जनसंवाद में विकलांग (जिन्हें सरकारी भाषा में दिव्यांग कहा जा रहा है) लोक गायक दीपक सुयाल को पुलिस ने डीजीपी के सामने जाने से रोक दिया और उन्हें कार्यक्रम स्थल से खींच कर बाहर ले आई. 





पुलिस का तर्क था कि दीपक सुयाल जब कार्यक्रम में पहुंचे तब तक डीजीपी महोदय का कार्यक्रम समापन पर आ चुका था.


उस दिन तो जो हुआ, वो अच्छा न होने के बावजूद बीत गया. लेकिन अब कार्यकारी पुलिस महानिदेशक अभिनव कुमार का एक वीडियो इस मसले में सामने आया है, वो हैरत में डालने वाला और आपत्तिजनक है. उक्त वीडियो में दीपक सुयाल के 40 प्रतिशत दिव्यांग होने का हवाला देते हुए अभिनव कुमार कह रहे हैं कि " वो दिव्यांग था नहीं, लेकिन इस तरह की हरकत दोबारा की तो दिव्यांग बना जरूर दूंगा."






क्या कानून का पालन करवाने वाला उच्च अधिकारी किसी को दिव्यांग बनाने की धमकी दे सकता है या ऐसी घोषणा कर सकता है ? क्या उन्हें कानूनी रूप से दीपक सुयाल या किसी को भी दिव्यांग बनाने का या किसी व्यक्ति का अंगभंग करने का अधिकार है ? 


प्रश्न यह भी है कि पुलिस महानिदेशक का कार्यभार देख रहे अभिनव कुमार को कानून के दायरे के बाहर जा कर ऐसी आक्रामक भाषा बोलने की जरूरत क्यों पड़ रही है ? 


यह पुलिस महानिदेशक की कार्यवाहक कुर्सी के पक्के होने पर मंडराते संशय के बादलों के कारण है या सत्ता के सामने अपनी फरमाबरदारी सिद्ध करने के लिए ऐसी कानूनेत्तर भाषा बोली जा रही है? वजह जो भी हो लेकिन कानून के राज की सेहत के लिए ऐसी भाषा, स्वस्थ तो नहीं कही जा सकती ! 


सवाल मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से भी है कि क्या उन्होंने अपने चहेते अफसर को कानून के दायरे के बाहर जा कर लठैतों जैसी भाषा बोलने की छूट दी हुई है ? मुख्यमंत्री की सहमति से ऐसी भाषा बोली जा रही है या फिर ये सब उनके निगरानी- नियंत्रण से बाहर है ? 



 -इन्द्रेश मैखुरी





Post a Comment

1 Comments

  1. इसके बावजूद DGP के लिए बनाई गई सूची से नाम बाहर कर दिया..आश्चर्य है।

    ReplyDelete