अखबारों में
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान की खबरें
छाई हुई हैं. एक अखबार में खबर का शीर्षक है “जो भ्रष्टाचार में शामिल होगा उसपर कठोर
कार्रवाई होगी” तो दूसरे अखबार में शीर्षक है “भ्रष्टाचारियों को बख्शा नहीं जाएगा.”
खबर और उनका शीर्षक पढ़ कर लगता है कि हैंडसम धामी, धाकड़ धामी जैसे
विशेषणों से नवाजे जा रहे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी बस अब तो भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों
का समूल नाश करके ही मानेंगे !
लेकिन तभी अदालत से एक खबर आती है और मुख्यमंत्री
के नाम पर छापे गए तमाम भ्रष्टाचार विरोधी शीर्षक सिर्फ गाल बजाने की कार्रवाई नजर
आने लगते हैं.
दरअसल जिस वक्त मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अखबारी
बयानों की तलवार हवा में भांज रहे थे, उसी वक्त भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की विशेष न्यायाधीश
और हल्द्वानी की द्वितीय अपर
सेशन न्यायाधीश नीलम रात्रा की अदालत ने एक फैसला सुनाया और उस फैसले में की
गयी तल्ख टिप्पणियों ने पुष्कर सिंह धामी के द्वारा फुलाए गए भ्रष्टाचार विरोधी बयान
के गुब्बारे की हवा निकाल दी !
उक्त अदालत के
सामने उत्तराखंड में हुए एनएच घोटाले की सुनवाई चल रही है. उसी सुनवाई के दौरान एन
एच घोटाले के मुख्य आरोपी पीसीएस अधिकारी डीपी सिंह के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति
सरकार द्वारा निरस्त किए जाने का पत्र अदालत में दाखिल किया गया. अदालत ने सरकार के
मुकदमा चलाने की अनुमति वापस लेने के पत्र को विभिन्न कानूनी नुक्तों और ऊपरी अदालत
के फैसलों के आधार पर खारिज कर दिया.
अदालत के फैसले के विभिन्न बिन्दुओं पर हम चर्चा करेंगे, लेकिन उससे पहले यह सवाल तो बनता ही है कि एक तरफ मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह
धामी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने और भ्रष्टाचारियों को न बख्शने के मुंह जबानी गोले दाग
रहे हैं और दूसरी तरफ उनकी सरकार लगभग 500 करोड़ रुपये के घोटाले के मुख्य आरोपी अफसर
के खिलाफ छह साल बाद मुकदमा चलाने की अनुमति तक नहीं देना चाहती ? क्यूँ भई धामी जी, ये एनएच का घोटाला कोई घोटाला ही
नहीं था या फिर 500 करोड़ में से कुछ फुहारें अनुमति के कागज पर भी पड़ गयी और अनुमति
का कागज गीला हो कर गलने के कगार पर पहुंच गया ?
बहरहाल भ्रष्टचार के खिलाफ लड़ने का दावा करने वाले पुष्कर
सिंह धामी जी की सरकार भले ही 500 करोड़ रुपये के एनएच घोटाले के मुख्य आरोपी डीपी सिंह
के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति निरस्त करना चाहती हो, लेकिन अदालत ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया.
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की विशेष न्यायाधीश और हल्द्वानी
की द्वितीय अपर सेशन न्यायाधीश नीलम रात्रा ने अपने 53 पन्नों के फैसले में लिखा है
कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के अंतर्गत लोकसेवकों के विरुद्ध मुकदमा चलाने की
अनुमति देने का अधिकार तो सरकार को है. लेकिन कानून में कहीं भी मुकदमा चलाने की दी
गयी अनुमति वापस लेने का अधिकार सरकार को नहीं है.
उत्तराखंड सरकार की तरफ से अदालत में कहा गया कि एनएच
घोटाले के मुख्य आरोपी पीसीएस अफसर दिनेश प्रताप सिंह के खिलाफ चूंकि शासन ने अनुशासनात्मक
कार्यवाही समाप्त कर दी है. इसलिए इसी को आधार मानते हुए न्यायालय को भी उनके विरुद्ध
मुकदमा निरस्त कर देना चाहिए.
गौरतलब है कि उधम सिंह नगर जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग
(एनएच) 74 को चौड़ा किए जाने के लिए भूमि का अधिग्रहण हुआ. उधमसिंह नगर जिले के तत्कालीन
जिलाधिकारी द्वारा करवायी गयी जांच में पाया गया कि भूमि अधिग्रहण के लिए दिये गए मुआवजे
में भारी हेराफेरी हुई है. बैक डेट पर कृषि भूमि को अकृषि करके, तय दर से 8-10 गुना मुआवजा दिया(लिया) गया. अदालत के फैसले में इस तथ्य का
उल्लेख है कि मुआवजे की इस बंदरबांट में तब उधमसिंह नगर और नैनीताल जिले के विशेष भूमि
अध्याप्ति अधिकारी के पद पर तैनात डीपी सिंह यानि दिनेश प्रताप सिंह की “विशेष” भूमिका थी. अदालत के फैसले में यह बात दर्ज है कि उधमसिंह नगर जिले के तत्कालीन अपर जिलाधिकारी प्रताप शाह ने 10 मार्च
2017 को पंतनगर थाने की सिडकुल चौकी में लिखित में शिकायत दी कि एनएच 74 के चौड़ीकरण
के लिए जसपुर से सितारगंज तक अधिगृहित की जाने वाली भूमि को कृषि से अकृषि दर्शा कर
उसका 8 से 10 गुना अधिक मुआवजा निर्धारित किया गया. यह भी रिपोर्ट में दर्ज है कि जसपुर
की ज़मीनों के मामले में, मुख्य अभियुक्त बनाए गए डीपी सिंह द्वारा
काश्तकारों और मध्यस्थों (इसे वैसे दलालों लिखा जाना चाहिए था) के साथ मिलकर षड्यंत्र
के तहत अधिक मुआवजा दे दिया गया. इस संबंध में एसडीएम काशीपुर ने 4 अगस्त 2016 को एक
रिपोर्ट मुख्य भूमि अध्याप्ति अधिकारी यानि एसएलएओ यानि डीपी सिंह को भेजी और कहा कि
प्रश्नगत ज़मीनों का मुआवजा न दिया जाये. लेकिन तत्कालीन एडीएम द्वारा दर्ज कराई गयी
रिपोर्ट में यह कहा गया कि तत्कालीन एसएलएओ डीपी सिंह ने उपजिलाधिकारी काशीपुर की रिपोर्ट
को दरकिनार करके मनमाने रूप से मुआवजा बांट दिया जिससे सरकार को करोड़ों रुपये का नुकसान
हुआ.
इस प्रकरण में 17 जनवरी 2018 को डीपी सिंह और एक अन्य
पीसीएस अधिकारी भगत सिंह फोनिया के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति उत्तराखंड के राज्यपाल
की ओर से राज्य के कार्मिक अनुभाग द्वारा जारी की गयी.
लेकिन हैरत की बात यह है कि मुकदमा चलाने की इस अनुमति को 12 अप्रैल
2024 को निरस्त कर दिया गया. सरकारी भाषा भी गजब है. जब मुकदमा चलाने की अनुमति दी
तो लिखा गया कि राज्यपाल “स्वीकृति प्रदान करते हैं.” लेकिन जब मुकदमा चलाने की अनुमति
निरस्त करने का शासनादेश हुआ तो उसमें लिखा गया “दिनांक 17.01.2018 द्वारा प्रदत्त
की स्वीकृति को एतदद्वारा निरस्त किए जाने की श्री राज्यपाल सहर्ष स्वीकृति प्रदान
करते हैं.”
500 करोड़ रुपये के घोटाले के मुख्य आरोपी के खिलाफ मुकदमा चलाने की
अनुमति निरस्त करने के आदेश में राज्यपाल की ओर से जो हर्ष प्रकट किया गया है, वो हर्ष कौन
महसूस कर रहा था- श्री राज्यपाल या पुष्कर सिंह धामी जी की वह सरकार, जिसकी ओर से श्री राज्यपाल मुकदमा चलाने की यह अनुमति निरस्त करने का आदेश
जारी कर रहे थे ?
इस “हर्ष” पर प्रश्न इसलिए भी उठता है क्यूंकि अदालत
ने भी इस ओर इंगित किया है. अदालत ने अपने फैसले के बिन्दु संख्या 26 में लिखा है कि
यदि अभियुक्त डीपी सिंह, न्यायालय
में उसके विरुद्ध आरोप निर्धारित करने से संतुष्ट नहीं था तो वह नियमानुसार उच्च न्यायालय
जा सकता था. न्यायालय के फैसले में लिखे गए इस अंश से साफ है कि सरकार में बैठे डीपी
सिंह के खैरख्वाहों को उसके विरुद्ध मुकदमा चलाने की अनुमति निरस्त करने में ज्यादा
हर्ष या फिर राहत महसूस हो रही थी.
अदालत ने साफ तौर पर लिखा कि एक बार मुकदमा चलाने
की अनुमति देने के बाद अनुमति निरस्त करना सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात
है, इसलिए उसका सारा
“हर्ष” धरा ही रह गया !
पुष्कर सिंह धामी की सरकार ने डीपी सिंह के विरुद्ध
मुकदमा चलाने की अनुमति को निरस्त करने के लिए तर्क दिया कि आरोपी के विरुद्ध विभागीय
अनुशासनात्मक कार्यवाही खत्म कर दी गयी है और उसमें आरोपी को क्लीन चिट दे दी गयी है.
इस पर अदालत ने लिखा कि “अमूमन भ्रष्टाचार के मामले में कई अभियुक्तों के जमानत पर
रिहा होने के उपरांत उनका विभाग उनके साथ बेहद नरमी से पेश आते हुए उन्हें पुनः उसी
पद पर, कई बार
और अच्छे पद पर नौकरी पर वापस रख लिया जाता है और उसकी विभागीय जांच पूर्णतः प्रभावित
होती है क्यूंकि तब जमानत पर रिहा हुआ ऐसा अधिकारी / कर्मचारी ऐसे पद का दुरुपयोग कर
अपने साथी कर्मचारियों और वरिष्ठ कर्मचारियों तथा यदि वह अगर उच्च पद पर है तो वह पहुंच
के अनुसार सरकार को अपने प्रभाव में लेकर अपने खिलाफ न्यायालय में लंबित सभी
कार्यवाहियों को किसी न किसी प्रकार से वापस लेने का प्रयास करता है जिससे ऐसे
कर्मचारियों एवं अधिकारियों को सरकार द्वारा आँख मूँद कर लाभ दिया जाता है......” भ्रष्टाचार
निवारण अधिनियम की विशेष न्यायाधीश के द्वारा अपने फैसले में लिखा गया यह वाक्यांश
मुख्य आरोपी डीपी सिंह और उत्तराखंड सरकार, दोनों की ही मोडस ऑपरेंडी
(modus operandi) यानि काम करने के तरीके का खुलासा करता है और
मुख्य आरोपी के साथ ही पुष्कर सिंह धामी की सरकार को भी कठघरे में खड़ा करता है.
उधम सिंह नगर जिले के जिलाधिकारी के बारे में भी उक्त
फैसले में काफी कठोर टिप्पणी की गयी है. अदालत ने लिखा कि अभियुक्त ने तो अदालत में
दोषमुक्त किए जाने की कोई अर्जी नहीं दी, लेकिन जिला मजिस्ट्रेट
उधमसिंह नगर ने अदालत को प्रार्थनापत्र भेज कर अभियुक्त को दोषमुक्त करने की प्रार्थना
कर रहे हैं. अदालत ने लिखा कि इस मामले में अभियुक्त से ज्यादा जिला मजिस्ट्रेट उधम
सिंह नगर अभियुक्त की पैरवी करते नज़र आ रहे हैं !
आदमी 500 करोड़ रुपये के घोटाले का मुख्य आरोपी है, लेकिन डीएम अदालत में उसका पैरोकार है, सीएम उसे मुकदमे
से बाहर निकालने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने को तैयार हैं ! ऐसे आदमी का भला कौन क्या बिगाड़ लेगा ?
इस एनएच 74 के
घोटाले में तो उत्तराखंड से लेकर केंद्र तक भाजपा शुरू से सवालों को घेरे में है. त्रिवेन्द्र रावत उस वक्त
मुख्यमंत्री थे, जब उन्होंने विधानसभा में इस घोटाले की सीबीआई जांच
कराने की घोषणा की. लेकिन केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी खुल
कर इस मामले की सीबीआई जांच के खिलाफ उतर गए. गडकरी ने जांच का विरोध करते हुए कहा
कि जांच से अफसरों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. अंततः मुख्यमंत्री की विधानसभा में की गयी घोषणा धरी रह गयी और सीबीआई
जांच नहीं हुई.
एनएच 74 के घोटाले के मामले में पीसीएस अफसरों के अलावा
दो आईएएस अफसर- डॉ. पंकज कुमार पांडेय और चंद्रेश कुमार यादव भी निलंबित किए गए. लेकिन
धीरे-धीरे, सभी न केवल बहाल हो गए बल्कि प्रमोशन भी पा गए !
एनएच 74 के जमीन अधिग्रहण में 500 करोड़ रुपये का घोटाला
हुआ, यह स्वयं अफसरों द्वारा दर्ज कराई गयी एफ़आईआर में लिखा है. लेकिन उत्तराखंड
की भाजपा की डबल इंजन की भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस के नारे वाली सरकार में
सभी आरोपी अफसर न केवल जमानत पर बरी हो गए बल्कि उन्हें बहाल करके प्रमोशन भी दिया
गया ! अब इस घोटाले के मुख्य आरोपी डीपी सिंह
के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति पुष्कर सिंह धामी की सरकार “सहर्ष” यानि खुशी-खुशी
वापस लेना चाहती है ! भाई पुष्कर सिंह धामी जी, भ्रष्टाचार के
आरोपियों के खिलाफ मुकदमा भी नहीं चलाने देंगे और भ्रष्टाचारियों को न बख्शने का दम
भी भरेंगे, ये दोनों एक साथ कैसे चलेगा ? सरकारी खजाने के 500 करोड़ रुपये का गबन आपको मंजूर है, लेकिन उसके मुख्य आरोपी के खिलाफ मुकदमा चलाया जाना आपको स्वीकार्य क्यूं
नहीं है ? भ्रष्टाचार से लड़ने की हुंकार और भ्रष्टाचार के आरोपियों
के प्रति नरम व्यवहार, यह कैसा खेल है सरकार ?
-इन्द्रेश मैखुरी
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