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“टिहरी की जनक्रांति” : राजशाही के विरुद्ध संघर्ष को समझने के लिए एक जरूरी पुस्तक

 

  

साल भर से कुछ पहले, नवंबर 2023 में कॉमरेड गिरधर पंडित की पुस्तक- “टिहरी की जनक्रांति” का देहरादून में विमोचन हुआ. यह पुस्तक असल में डॉ गिरधर पंडित की पीएचडी थीसिस का ही पुस्तकाकार रूप है. टिहरी में राजशाही के खात्मे और उसमें कॉमरेड नागेंद्र सकलानी की भूमिका में रुचि होने के चलते, मैं पिछले कई वर्षों से कॉमरेड गिरधर पंडित से यह इसरार करता रहा था कि मुझे उनकी पीएचडी थीसिस देखनी / पढ़नी है. थीसिस के तौर पर तो पढ़ने का संयोग नहीं बन सका, लेकिन टिहरी में राजशाही के विरुद्ध संघर्ष के इतिहास में रुचि रखने वाले मेरे जैसे तमाम लोगों के लिए यह पुस्तक उपयोगी और रुचिकर है. मैं तो यह सुनकर ही काफी खुश हुआ कि डॉ गिरधर पंडित ने अपने शोध ग्रंथ को पुस्तकाकार प्रकाशित करवा दिया है और अब यह सभी को उपलब्ध होगा.








डॉ गिरधर पंडित की पुस्तक टिहरी में राजशाही के लगभग समूचे अतीत को सामने रखती है, उसके क्रूर चरित्र को भी सामने रखती है और यह भी इस पुस्तक से सामने आता है कि राजशाही के क्रूर जुल्मों के तले पिस रहा जनता धीरे-धीरे ही सही, लेकिन अंततः निर्णायक तौर पर राजशाही को उखाड़ फेंकने के लिए उठ खड़ी हुई. लेखक ने क्रमबद्ध तरीके से जनता के बीच से उठने वाले हर प्रतिरोध के स्वर की शिनाख्त की है और लंबे समय तक राजभक्ति और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष में उतरने के द्वंद को भी चिन्हित किया है.


इस पुस्तक में डॉ गिरधर पंडित टिहरी पर शासन करने वाले हर राजा का चरित्र चित्रण करते हैं और उसके शासन काल में हुई प्रमुख घटनाओं, उसके द्वारा किए गए कामों, राजा द्वारा जनता पर ढाए जुल्मों और उसके विरुद्ध विक्षोभ की प्रकृति और स्थिति का विवरण भी देते हैं.टिहरी के लगभग सभी राजा जनता के प्रति क्रूर और विलासिता का जीवन जीने वाले थे. उन्होंने जंगलों और जमीन को अपनी आय बढ़ाने के लिए कतरा-कतरा निचोड़ लेने की हद तक इस्तेमाल किया. लेखक ने पुस्तक में उन करों की पूरी सूची दी है, जो क्रूर राजशाही ने लोगों पर थोपे. गरीब जनता को चूल्हे से लेकर सुहागिन स्त्री और पिसाई पर तक कर देना होता था और जनता को निचोड़ कर राजा विलासिता भरा जीवन जीते थे. 1921 में बद्रीदत्त पांडेय की अगुवाई में बागेश्वर कुली बेगार के खिलाफ आंदोलन हुआ और उसके बाद अंग्रेजों के प्रशासन वाले उत्तराखंड में बेगार खत्म कर दी गयी. लेकिन राजशाही वाली टिहरी में बेगार और राजशाही लगभग साथ-साथ ही खत्म हुए.


   यह तो ज्ञात तथ्य है कि गोरखों से गढ़वाल राज्य वापस दिलाने में अंग्रेजों ने गढ़वाल के राजा की मदद की. युद्ध के बाद 1815 में संधि के बाद आधा गढ़वाल अंग्रेजों के पास चला गया, जो ब्रिटिश गढ़वाल कहलाया और शेष टिहरी गढ़वाल राजा को मिला. राजा सुदर्शन शाह चूंकि अंग्रेजों द्वारा राज्य वापस दिलाये जाने की कृपा के बोझ से दबा हुआ था, इसलिए 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में वह अंग्रेजों के पक्ष में ही खड़ा हुआ. पुस्तक बताती है कि टिहरी के लगभग सभी राजा अंग्रेज़ परस्त थे.  प्रजा पर तमाम जुल्म ढाहने के बावजूद यह अंग्रेज़ परस्ती ही थी, जिसकी वजह से उनका राज 1815 से लेकर 1948 में जनता द्वारा उखाड़ फेंके जाने तक कायम रहा है. यह भी रोचक है कि जिस नरेंद्र शाह के राज में टिहरी में तिलाड़ी, श्रीदेव सुमन की शहादत और अंततः कॉमरेड नागेंद्र सकलानी और मोलू भारदारी की शहादत तक, दमन कांडों का एक लंबा सिलसिला चला, उस नरेंद्र शाह को गद्दी सौंपे जाने की मांग भी लोगों की ओर से की गयी थी. 1913 में नरेंद्र शाह के पिता कीर्ति शाह की मृत्यु के समय नरेंद्र शाह नाबालिग था. रानी ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण राज-काज से हाथ पीछे खींच लिया तो अंग्रेज़ अफसरों वाली रीजेन्सी कौंसिल राज चलाने लगी.  रीजेंसी कौंसिल के स्वेच्छाचारी और निरंकुश शासन से पीड़ित लोगों ने मांग की कि सिंहासन नरेंद्र शाह को सौंपा जाए. यह भी रोचक है कि जिस नरेंद्र शाह को 1919 में लोगों ने अंग्रेजों से सिंहासन दिलवाया, उसी नरेंद्र शाह को जनवरी 1948 में कॉमरेड नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत के बाद लोगों ने टिहरी में घुसने तक नहीं दिया.


डॉ गिरधर पंडित पुस्तक में राजशाही और उसके खिलाफ धीरे-धीरे पनप रहे विक्षोभ का सिलसिलेवार ब्यौरा देते हैं, बल्कि उस दौरान देश के राष्ट्रीय आंदोलन तथा साथ ही अंतरराष्ट्रीय उथल-पुथल और उसका टिहरी के भीतर के हालात से तुलनात्मक विवरण भी देते हैं. पुस्तक में उन तमाम किसान आंदोलनों का विवरण है, जो टिहरी रियासत के भीतर राजशाही की क्रूरता के बावजूद उठ खड़े हो रहे थे. श्रीदेव सुमन की संघर्ष यात्रा, उनके द्वारा प्रजामंडल को संगठित करने, उसे टिहरी के अंदर पंजीकृत करवाने की कोशिश, उनकी गिरफ्तारी और उनकी शहादत तक के इतिहास को पुस्तक एक बार फिर सामने रखती है. सुमन की शहादत के बाद टिहरी में पसारे सन्नाटे के बीच नागेंद्र सकलानी का उदय होता है. वे देहरादून में पढ़ते हुए कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और निरंतर ही टिहरी राजशाही के विरुद्ध लोगों को संगठित करने का प्रयास करते रहे. 1945 में श्रीदेव सुमन के पहले शहादत  दिवस का आयोजन उनकी पहल पर देहरादून में हुआ. डांगचौरा के किसान आंदोलन में उन्होंने एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के तौर पर प्रजामंडल के भीतर काम करने के सिलसिला जारी रखा. राजशाही की पुलिस द्वारा द्वारा गिरफ्तार करने की कोशिशों के अतिरिक्त भी, जिन परेशानियों का सामना कॉमरेड नागेंद्र सकलानी को करना पड़ा, यह पुस्तक उन्हें सामने रखती है. नागेंद्र सकलानी कम्युनिस्ट होने के चलते प्रजामंडल से निष्काषित किए जाते हैं, राजा भी कोशिश करता है कि कम्युनिस्ट होना का भय दिखा कर बाकी प्रजामंडल के नेताओं को उनसे अलग कर दे. प्रजामंडल के अंदर के वैचारिक संघर्ष को भी पुस्तक सामने रखती है. अंततः 11 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर में कॉमरेड नागेंद्र सकलानी और कॉमरेड मोलू भरदारी की शहादत, राजशाही के पतन का निर्णायक कारण बनती है. टिहरी के भारत में विलय के बीच प्रजामंडल की अंतरिम सरकार की उपलब्धियों, खामियों, कमजोरियों और इसके बीच नेताओं के वैचारिक संघर्ष की तस्वीर भी पुस्तक सामने रखती है.


यह भी रोचक है कि राजशाही के विरुद्ध खड़े होने वाले तमाम किसान आंदोलनों को लगातार राजशाही दमन के ज़ोर से कुचलती रही, लेकिन 1947 तक आते-आते जब सकलाना में विद्रोह शुरू होता है और आजाद पंचायतें गठित होती हैं तो उस समय से राजशाही का हर वार संगठित जनशक्ति विफल कर देती है, यहाँ तक कि कॉमरेड नागेंद्र सकलानी और कॉमरेड मोलू भारदारी की शहादत से भी संघर्ष को धक्का नहीं लगता बल्कि निर्णायक आवेग मिलता है. 

    

टिहरी राजशाही के विरुद्ध संघर्ष को समझने के लिए समय साक्ष्य प्रकाशन,देहरादून से प्रकाशित डॉ. गिरधर पंडित की पुस्तक “टिहरी की जनक्रांति” एक जरूरी पुस्तक है. लगभग 286 पन्नों की इस पुस्तक का मूल्य 395 रु. है और यह अमेज़न पर भी उपलब्ध है. प्रूफ की गलतियां सुधार ली जाएं तो पुस्तक की प्रवाहता में आने वाली बाधाएं भी दूर हो जाएं. एक चीज जो कम दिखती है, वो है समाज के कमजोर तबकों, खासतौर पर महिलाओं और दलितों की इस पूरे दौर में स्थिति और भूमिका. 









डॉ. गिरधर पंडित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य कौंसिल के सदस्य हैं, राज्य सहसचिव और  राज्य कंट्रोल कमीशन के अध्यक्ष रहे हैं. जिस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एक समय महासचिव रहे कॉमरेड पीसी जोशी को अल्मोड़ा भेजा, उस समय कॉमरेड पीसी जोशी के कहने पर ही कॉमरेड गिरधर पंडित ने अल्मोड़ा में भाकपा के जिला सचिव के तौर पर काम किया. पुस्तक के रूप में प्रकाशित यह शोध कार्य भी उन्होंने तभी किया. जिस समय भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन और कम्युनिस्ट पार्टी गठन के 100 साल हो रहे हैं, ऐसे वक्त में वे कॉमरेड पीसी जोशी के साथ गुजारे गए दौर को भी दस्तावेजी रूप में सामने ला सकें तो अच्छा होगा. फेसबुक पर कॉमरेड गिरधर पंडित ने कुछ संस्मरण लिखे हैं, लेकिन पुस्तक के रूप में आयें तो बेहतर होगा. इसके अलावा इस पुस्तक में भी ऐसी ढेर सारी अप्रकाशित सामग्री का संदर्भ है,जिसे प्रकाशित किया जाना चाहिए, जैसे कि कॉमरेड नागेंद्र सकलानी द्वारा कॉमरेड ब्रिजेन्द्र कुमार गुप्ता को लिखे गए कई पत्रों का उल्लेख पुस्तक में है. गौरतलब है कि कॉमरेड ब्रिजेन्द्र कुमार गुप्ता भी टिहरी राजशाही के खिलाफ संघर्ष में बेहद गहराई तक जुड़े हुए थे. इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि डांगचौरा के किसान आंदोलन में जब राजा ने नागेंद्र सकलानी के खिलाफ वारंट निकाला तो वह- नागेंद्र सकलानी उर्फ ब्रिजेन्द्र कुमार के नाम से निकला. 100वें साल में प्रवेश कर रहे भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन की गौरवशाली धरोहरों को सामने लाने का प्रयास निश्चित ही किया जाना चाहिए.


-इन्द्रेश मैखुरी

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